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________________ वरंगचरिउ 183 ने नागदेव को जीता है, तुम उसके लिए सगुणधारा कह सकते हो। वणिकुमार मनोरमा के पास शीघ्रता (वेग) से जाओ, शुभलक्ष्मी कांता के घर में निवास करो अर्थात् शुभपुण्य की अधिकता से श्रेष्ठ सुखपूर्वक निवास करो। स्त्री के यह वचन सुनकर कुमार कहता है, मेरे द्वारा यह अपयश को करने वाला कार्य उचित नहीं है। जो पापी, नीच लज्जाविहीन, अवगुणों में लीन है, वही व्यक्ति परस्त्री में रमता है। जो संत, महंत, दमन करने वाला और क्षमावान यदि सुख के लिए परस्त्री में रमण करता है तो वह अपने धर्म का नाश करता है और वह सम्यक् नर धन्य है जो स्त्री के संग का त्याग करता है और इस लोक में स्वतंत्रता से गमन करता है। घत्ता-अपने पति का त्यागकर, लज्जा छोड़कर, जो पर-पुरुष की अभिलाषा करती है। वह अत्यन्त दुःख को पाती है एवं पृथ्वी पर आती हुई, निश्चित रूप से नरक भूमि पर बसती है। ____4. सखी द्वारा कुमार वरांग को प्रलोभन देना प्रिय को छोड़कर, दीर्घकाल रात्रि में रस मानकर, सम्मान को छोड़कर, दासीपुत्र (चेटीसुत) का सेवन करती है। मदनातुर और यौन भार को प्राप्त करती है तो उचित-अनुचित नहीं जानती है और रमण करती है। राजपुत्री बिना विवाह किये हुए, मेरा संग मृत-युक्ति है। वह क्यों मुझ पापमूल का सेवन करती है, कामीजन हृदय में शूल देते हैं। व्रतरत्न का विध्वंस करके मैं नहीं जाऊँगा। मैंने स्वयं ही पर-स्त्री-सेवन के त्याग का व्रत वरदत्त मुनिराज के पास में लिया है, इन्द्रिय की लंपटतावश वह क्या मैं भग्न करूं। यह सुनकर सखी प्रत्युत्तर में कहती है, तुम्हारे समान अन्य कोई मूर्ख नहीं है। यदि स्त्रीरत्न में रमण करने से पाप होता है तो देव और मनुष्य कोई भी लोक में रमण नहीं करेगा। रे! मूर्खकुमार तुम धर्महीन हो जो कुमारी के संग में लीन नहीं होते हो। स्त्री के संग को गुप्त रखना पतित के समान है, स्त्री के साथ इन्द्रियसुख अमृतखान है। सखी कहती है-तुम परस्त्री को गिराते हुए वर्जित करते हो, वह परस्त्री नहीं है। शीघ्र ही उसका भोग करो। तुम स्त्रीरत्न को ग्रहण करो, उसके समान चिरकाल में कोई सुन्दर नहीं है। वनप्रदेश में वह तुम्हें देख रही है, उसके गुप्तवेश को कोई नहीं जानता है। घत्ता-उसके वचनों को सुनकर, व्रत को स्मरण करके, वरांग कहता है-हे! गुणनिलय यदि चोरी से धर्म को छोड़कर सेवन किया जाये तो लोक में यश का नाश हो जायेगा।
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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