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________________ वरंगचरिउ खण्ड-खण्ड करते हैं, आकाश में देवों को आश्चर्य उत्पन्न हुआ। अहो! वहां क्या कुमार द्वारा चक्र धारण किया गया, कुमार ने शीघ्र वहां जाकर सिर कुचल दिया। उपेन्द्रसेन को पृथ्वी पर गिरा हुआ छोड़ दिया । कर्मविपाक (कर्म के फल) को जानने में कोई अभ्यस्त नहीं है, जयश्री के कारण से संग्राम (युद्ध) शोभित होता है। वह विधाता हाय-हाय किसके क्या खंड-खंड करवाता है, जो कुंडल एवं मणिमुकुट को धारण करता है, उसी का सिर रुधिर में लिप्त होता है। जो शरीर वस्त्रों और आभूषणों से शोभित होता है, वहीं पृथ्वी पर गिरते हुए दूषित (दोषयुक्त) नहीं होता क्या ? 175 घत्ता-हाय हाय! विधाता संसार की क्या गति है, राग (इच्छा) भी आकाश के समान है। यम (मृत्युदेवता) रोषयुक्त होने पर रक्षा कौन करेगा? इन्द्र भी गिरता है, फिर उसका क्या मान ( इज्जत ) है । खंडक—उपेन्द्रसेम को धरती पर गिरते हुए देखकर, वीर योद्धा राजा इन्द्रसेन के पास जाकर एवं वंदन करके कहता है - देव! तुम्हारा पुत्र, युद्ध भूमि में मारा गया । 20. कुमार वरांग का स्वागत इस प्रकार यौद्धा के वचन इन्द्रसेन सुनकर, जो अपने परिवारजनों के पालन-पोषण के लिए कामधेनु है। उसके नेत्र रक्तमय हो गये एवं देह प्रज्ज्वलित हो गई, पुत्र के स्नेह में निबद्ध इन्द्रसेन अतिक्रोधित हुआ। हाथी पर सवार होकर जहां वह (देवसेन) प्राप्त हो, वहां राजा इन्द्रसेन गया। युद्ध भूमि में दोनों को क्रोध उत्पन्न हुआ, भयानक उत्सुकता से मानो समुद्र हिलोरें मारता हो । देवसेन का बहुत क्या कहूँ, उसके योद्धा, सेना के पीछे भागते हैं, वहां शत्रुसेना अपने प्राणों को लेकर भागती है। अन्य योद्धाओं को भी किसी तरह घायल करके छोड़ा। साथ ही पृथ्वीनाथ (राजा देवसेन) ने विजयश्री को प्राप्त किया । देवगणों ने आकाश में साधु-साधु उच्चारित किया । इस प्रकार कुमार वरांग प्रवृत्त हुआ । देवसेन कहता है - हे नृप! सुन्दर शरीर से युक्त धन्य हो, तुम्हारे पुण्य से सम्पूर्ण शत्रुबल भाग गया, तुम्हारा पुण्य नगर में श्रेष्ठ भव्यता से युक्त है। कुमार राजा के द्वारा बार-बार प्रशंसित हुआ । तुम्हारे समान अन्य कोई दूसरा कामदेव नहीं है, तुम्हें मेरे नगर की रक्षा करना है, मैं तुमको पृथ्वी प्रतिपादित करता हूँ । शत्रु के लिए तुम्हें यम रूप में देखकर मैं तुमको पृथ्वी देता है । तुम तो गुणों की बरसात के सदृश हो, क्या वर्णन करूं तुमने बहुत ही प्रयत्न किया है ।
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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