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________________ वरंगचरिउ 161 घत्ता - तब दूत शीघ्र ही जाता है और श्रेष्ठ हाथी की सम्पूर्ण वार्ता को नृप इन्द्रसेन को कहता है। खंडक - राजा इन्द्रसेन कहता है- यदि वह मुझे गजेद्र (हाथी) नहीं देते हैं तो मैं उस दिग्गज को नष्ट करूंगा एवं मेरे समान अन्य कौन जाना जाता है। 10. युद्ध के लिए सेना गमन इस प्रकार (उक्त वचन) को सुनकर पुनः दूत ने कहा- हे राजन् ! उन्होंने (देवसेन) उचित उत्तर नहीं दिया है। वह सिंह और उसका हाथी इन्द्र है । तुम्हारी पृथ्वी के हरण के लिए वह चढ़ाई करेगा। अग्नि की शिखा की तरह उसकी भुजाएँ निवारण करने के लिए तत्पर हुईं। तुम्हारी पृथ्वी और तुम्हारा ही वह नदी का प्रवाह है। हे राजन् ! निरर्थक क्रोध मत करो। यदि पौरुष है तो सामर्थ्य से प्राप्त कीजिए। हाथी (मयगल) को अर्पित करने से शांति हो सकती है, नहीं तो संग्राम (युद्ध) करना पड़ेगा। कुलीनता पूर्वक सुवस्तु अर्पित करते हो, अन्यथा मरण की अवस्था प्राप्त करो । ' इन वचनों को सुनकर क्रोध प्रज्वलित हो गया, मानो किसी ने अग्नि पर घी डाला हो । रे निर्जज्ज दूत ! (यहां से) जाओ। अपने स्वामी का पौरुष आज ही कहो। क्यों स्वामी का घर बल विहीन है। हे दीन ! तुम्हारे राजा के लिए हाथी अर्पित नहीं करूंगा । यदि बल और शक्ति वृद्धिंगत हो तो ले करके आये। इन वचनों के भाव को सुनकर दूत गया, जहां राजा इन्द्रसेन और सेनापति थे। सिर को पृथ्वी तल पर झुकाकर एवं हाथों की अंजली को जोड़कर प्रणाम करता है। हे देव! तुम्हारी आज्ञा को उसने (देवसेन) नहीं माना । वह दुष्कर साधन की तरह है जो आसानी से ग्रहण नहीं किया जा सकता है। अभिमान तुल्य उसने हाथी अर्पित नहीं किया। अभिमान के मोह से अर्पित करना मृत्यु के समान है। जो तुमको रुचता हो वह हाथी के लिए करो। तुम्हारी सुन्दर जयश्री तो तलवार में बसती है । इस वाणी को सुनकर राजा इन्द्रसेन कहता है- मेरे आगे कौन जयश्री का वरण करेगा। अभिमान से मन में अत्यधिक क्रोध को धारण करके, मंत्रियों को बुलाकर पुनः निरीक्षण करवाया और संग्राम की दुन्दुभि तुरन्त बजाओ । पुनः कौतूहल पूर्वक महायुद्ध के लिए जाते हैं, घोड़ा, हाथी, और उनकी सवारी सजती है । अंग की सुरक्षा के लिए कवच भी धारण किये, उन्होंने श्रेष्ठ रथ पर
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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