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________________ 153 वरंगचरिउ नगर सूना है। तुम्हारे बिना मनुष्य पागल हो गये हैं, तुम्हारे विरह की अग्नि में वधुएँ जलती हैं। अथवा वर (पति) के न दिखाई देने पर लवलीन नहीं होती है, मेरा घर ग्रहण सदृश हो गया है, तुम्हारे बिना मेरा जीना अच्छा नहीं है । घत्ता - हाय ! कुन्द के पुष्प के समान उज्ज्वल कीर्ति और यश, हाय! तुम्हारा सीता के समान सुन्दर मन है। हाय! हाय! हे वरांग तुम कहाँ गये, तुम्हारे बिना सब कुछ असुन्दर लगता है । 6. पुत्र विरह से पीड़ित गुणदेवी को समझाना खंडक - इस प्रकार अपने पति धर्मसेन से करुणा से कहते हुए पुत्र मोह से जो विदीर्ण हो गई है, वह श्रेष्ठ रानी शीघ्र ही गिर पड़ी । जिसके हाथों में कंगन और केयूर नामक आभूषण रमणीक थे, पृथ्वी पर गिर करके मूर्च्छा को प्राप्त हो गई। इस प्रकार पुनः पार्श्व में देवी को रखा गया, हाय हाय कहते हुए किसी ने सहारा दिया । पुनः दासियों द्वारा चमर की हवा और दूसरा मलयागिरी के पराग से मुँह सिंचित किया गया, फिर उठकर चेतनभाव को प्राप्त किया, पुनः शोक में रत होकर रोती है। वहां शोक करते हुए सभी नगर के नर-नारी गुणदेवी के द्वार पर आये । अंतःपुर में शब्दों की ध्वनि एवं पैरों में पहने हुए नुपुर ध्वनि करती हुई अंतःपुर में आई। नगर के श्रेष्ठ महानुभाव सज्जन आते हैं, जिनका स्वभाव श्रेष्ठ शिक्षा देना है। क्षीण होते हुए हृदय से उसको (गुणदेवी) देखकर जो कर्म के वशीभूत पुत्र-पुत्र कह रही है। जो-जो स्त्री - पुरुष भी वहां आये, उन सभी ने हाहाकार दुःख व्यक्त किया । जो मनुष्य सकल मनोरथ सहित लोक में रहता है, उसके कारण वह कोई शोक नहीं करता है । पुनः वह (गुणदेवी) पंडितों (विद्वानों) के द्वारा संबोधित की गई कि तत्त्वों के विज्ञान के द्वारा श्रेष्ठ भावों से युक्त हो (धारण करे ) । जिसकी मालती के पुष्प की माला की सदृश भुजाएँ हैं और अपने स्वामी की बाहों में स्नेह और प्रेम में निबद्ध है, मानो अप्सराओं के समूह के बीच सुरेन्द्र पति रूप में हो। वरांग की रानियों ने प्रिय की भक्ति प्राप्त की, अपने स्वामी के वियोग को सुनकर - हाय विधाता ने मेरे सौभाग्य का क्या किया? हाय ! नाथ-नाथ कहती हुई, शोकातुर होकर, हाहाकार किया करती हैं। हाय! हमारा यौवन निरर्थक हो गया, जो पुष्प जैसी यह अवस्था प्राप्त की । हाय विधाता ने किस प्रकार वज्र का प्रहार किया है, हमारे माथे की छत्र-छाया रूप राजा का हरण
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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