SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वरंगचरिउ 137 12. वणिपति का वरांग के प्रति स्नेह दुवई-मैं नहीं जानता हूँ कि तुम्हारे कौन माता-पिता हैं? कहां उत्पन्न हुए हो? कौन-सा श्रेष्ठ नगर है? यहां पहुंचने का क्या कारण है? तुम्हारा एक श्रेष्ठ वंश जानता हूँ, तुम्हारा पौरुष (बल) जग में सभी ने देखा है, वणिक्पति कुमार की प्रशंसा करता है। सुन्दर शरीरयुक्त तुमने युद्ध-प्रांगण में शत्रु को परास्त किया है। वरांग के लाल रक्त निकलता दिख रहा है, वह घाव के दुःख से मूर्च्छित लौटा है। उसे देखकर सागरबुद्धि को मन में शोक-संताप होता है, वह आंसू छोड़ते हुए रोता है, हाय विधाता! कुमार को ऐसा क्या मारा गया है, जहां वणिक-समूह युद्ध में सहकारी बना था। हाय-हाय पुत्र क्यों संतप्त होते हो? एक बार मुझे तुम अपने वचन अर्पित करो, पुत्र उठो, मुझे अपनी वेदना दो। पृथ्वी पर मत विश्राम करो, मुझे दुःख होता है। इस प्रकार वणिपति कहते हुए, राज-पुत्र पर मलयागिर का जल डाला, फिर शीतल चमर की वायु ढुलाई, दवा दी जाती है एवं देखरेख की जाती है। वह नृपनंदन जो सभी के लिए मन और आंखों का तारा है, सचेत भाव को प्राप्त कर उठता है तो फिर वणिक-समूह हर्षित होता है एवं सभी कुमार को घनिष्ठतापूर्वक आलिंगन करते हैं। वरांग के अंगों में औषधि का लेप दिया जाता है, कुमार कुछ ही दिनों में ठीक हो जाता है। श्रेष्ठी सागरबुद्धि कहता है- हे महाबली! धन-धान्य, स्वर्ण आदि यह सब कुछ ग्रहण करो एवं मणि रत्नादि सभी पदार्थ मैं तुमको अर्पित करता हूँ, कुमार (यह सब) ग्रहण करो। यह जानकर फिर कुमार वरांग कहता है-आपके कहे हुए वचन बहुत अच्छे हैं, धनदानादि अधर्म को संतुष्ट करते हैं। मध्यम धन समान रूप से पोषित किया जाना चाहिए। घत्ता-जो दूसरों के उपकार और हित के लिए होता है एवं सज्जन का चरित्र जिसमें लीन होता है, वह उत्तम है। वह हितमित वचनों से संतुष्ट करता है और उनके द्वारा प्रदत्त सम्पत्ति को नहीं लेता है। दुवई-श्रेष्ठी कहता है परोपकार करने वाले पात्र मेरे समीप बैठो। हे सच्चरित्र! तुमने लक्ष्मी को ग्रहण नहीं किया तो भी मैं सदा अर्पित करता रहूंगा।
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy