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________________ वरंगचरिउ 135 __घत्ता-कुमार रण में जाता है तो कायरों का भयानक नाश होता है। दोनों युद्ध करते हैं, वहां पर कुमार शत्रुपक्ष का युद्ध काल में पसीना बहा देता है। 11. सवर राजा से कुमार का युद्ध दुवई-कुमार के द्वारा दूसरे के धन का हरण करने वाले लोभी का नाश किया गया है और विजयश्री का वरण किया गया है। वणिकवर के द्वारा नृप कुमार वरांग की प्रशंसा की जाती है। __ अपने पुत्र के मरण को सुनकर महाकाल भी तलवार लेकर पहुंचता है। धनुष और तरकश को धारण करता है, वहां आकर, वह कुमार को ललकारता है। रे रे! धृष्ट-दुष्ट वणिक पुत्र-मेरा पुत्र नयनों का तारा था। रे! पापी उसको मारकर कहां जायेगा, यह कहकर राजा महाकाल बाणों की वर्षा करता है, वह पुत्र मोह से बंधकर, दूसरों के प्राण हरण के लिए असदृश, विषयुक्त, तीक्ष्ण बाण छोड़ता है। वे बाण वरांग कुमार के अंग में आकर लगते हैं। यह देखकर सभी वणिक भाग जाते हैं। सुंदर (वरांग) युद्धप्रांगण में ऐसे हैं, जैसे वन में सिंह हाथी आदि के आगे रहता है। दोनों का रण में रौद्र रूप उत्पन्न होता है, दोनों ही बाणों से शरीर भग्न किया करते हैं। फिर कुमार रुष्ट होकर महाकाल को भी यमराज के सम्मुख पहुंचा देता है। आकाश में जय-जय के शब्द गूंजते हैं, बलवान योद्धा जीतकर मित्रों से प्रशंसित होता है। अपने राजा की तिरस्कार पूर्वक मृत्यु मानकर, सवर की सेना युद्धभूमि से पलायन करती है। जहां कुमार वरांग धन-सम्पत्ति को पाता है, क्या वनचर शीघ्र ही वह स्थान छोड़ते हैं अर्थात् वे स्थान छोड़ते हैं। जिस प्रकार जिनवर को श्रेष्ठज्ञान (केवलज्ञान) प्राप्त होता है, वैसे ही क्या कर्मसमूह का नाश नहीं होता है। अर्थात् कर्म-समूह का नाश होता है। उस अवसर पर वणिकपति कहता है-तुम्हारे समान कोई दूसरा नहीं है। इस पृथ्वी पर योद्धा रत्न एक मात्र तुम हो। तुमने सवर के बल को पछाड़ दिया, तुमसे मिलकर पृथ्वी पर कौन प्रसन्न नहीं होगा, तुम्हारे समान अन्य कोई कामदेव नहीं है। मैं यशपताका की जयश्री तुमको घोषित करता हूँ और तुम्हारी कीर्ति की ध्वजपताका आकाश को छुए। तुम्हें वणिक संघ की मरते दम तक रक्षा करना है और हे वरांग! (सुन्दर) धर्म रसायन भी सीखना है। घत्ता-अपने वंश को तुमने उज्ज्वल किया है, हमको जीवन दिया है। तुम सुरगिरि (सुमेरु पर्वत) के समान धैर्यता से निर्मित हो, तुम एक जग में धन्य हो।
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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