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________________ वरंगचरिउ 129 . घत्ता-कुमार वरांग को लेकर सभी ने प्रधान वणिकपति सागरबुद्धि को अर्पित किया और उन्होंने कहा-इस सुन्दर मानव को देखो। दुवई श्रेष्ठी अवलोकन कर चिंतन करता है, मेरे आनंद का अवसर आया है। मैं श्रेष्ठ को यहां रखूगा और भोजन दूंगा एवं वरांग को साथ में एक स्थान से दूसरे में ले जाऊँगा। ___7. कुमार वरांग की प्रशंसा इस प्रकार राजपुत्र (कुमार) शुभ की आशा से धर्म में आसक्त होता है। सागरबुद्धि कहता है-तुम रूपदेव एवं प्रसन्न मूर्ति हो, तुम्हारी सम्पूर्ण लोक में रमणीय दृष्टि है, तुम विष्णु-पुत्र की तरह शोभित हो, तुम देव और मनुष्यों के चित्त को हरने वाले हो। इस प्रकार सागरबुद्धि सार्थवाह ने उसकी बार-बार प्रशंसा की, पश्चात् षट्रसयुक्त भोजन दिया। पुनः सार्थपति कहता है-तुम मेरे साथ आनंदपूर्वक रहो। पुनः मार्ग में जाते हुए जब सभी गीतों में मस्त थे तब वहां क्रूर भील समूह को प्राप्त किया। वे (वणिक) अपनी पत्नियों के साथ हाथों में हाथ लेकर अच्छे-अच्छे गीतों को सुन रहे थे तभी श्रेष्ठी का दूत मन में भय से भयभीत कहता है-सार्थपति सुनो! हमारे ऊपर वनचरों का समूह वजशत्रु के रूप में आया है। उसके वचन सुनकर सार्थपति कहता है-मैं शीघ्र ही उन दुष्टों का नाश करूंगा और अपने धन को नहीं दूंगा। फिर वणिपति योद्धा वहां पहुंचते हैं, जहां भीलों का समूह था। वे क्रोध सहित और लोभ सहित युद्ध करते हैं और पीछे उनके अंगों को घायल कर देते हैं। पुनः-पुनः भील (चोर) बाणों से वणिकों को घायल कर देते हैं। सभी वणिक यह. जानकर, पश्चात् वे सभी वहां से भाग जाते हैं। घत्ता-वहां रण में अपने योद्धाओं को घायल देखकर सागरबुद्धि ऐसे कांपता है, जैसे फागुन माह में हवा से वृक्ष के पत्ते कांपते हुए गिर जाते हैं। दुवई-नृपकुमार श्रेष्ठी को देखकर कहता है-पर्वत तुल्य धैर्य रखो। तुम श्रेष्ठ धर्मी और धैर्यवान हो, इस तरह भयभीत मत हो। ___8. किरायगण से कुमार वरांग का युद्ध इस प्रकार कहते हुए कुमार रण सम्मुख जाता है। दिशाएँ हाथी के चलने से मानो हिलती है। कमर पर तरकश को बांधता है, तलवार को हाथ में ग्रहण करता है। रथ पर
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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