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________________ वरंगचरिउ 127 काली काया रूप चिह्न देखकर वनचर हाहाकार किया करता है। स्वामी (भिल्लराज) शीतल जल उसके ऊपर सींचता है। फिर भिल्लराज विलाप करते हुए उठता है और हाय पुत्र, पुत्र, वीर योद्धा आ जाओ। घत्ता-इस प्रकार करुणा के सरोवर को जानकर, विष को हरने के लिए कहता है। कुमार कहता है-मैं मंत्र जानता हूँ, जिससे सुख संभव होता है, अमूल्य उपकार किया करता हूँ। दुवई-यह वचन सुनकर भिल्लराज शीघ्र ही कुमार के पैरों में पड़ता है। मैं रण में अभागा हूँ। मेरे पुत्र की काल के ग्रास से रक्षा कीजिए। 6. भिल्लराज की पीड़ा प्रशमन . श्री (लक्ष्मी) एवं सुवर्ण जो-जो तुम मांगते हो वह-वह सब कुछ मैं अर्पित करूंगा। इस प्रकार अति करुणा से उसकी वाणी भर जाती है। जब व्यक्ति को अपना दुःख होता है तो सब कुछ भूल जाता है। पवित्र जल से स्नान करके, श्रेष्ठ अंगों की पवित्रता को धारण करके, पंचणमोकार मंत्र पूर्वक जल का सिंचन करता है, मानो सर्प का विष अग्नि में फेंक दिया गया। भील कुमार विषरहित होकर उठता है और अपने बंधुजन एवं प्रियजननी (माता) को संतुष्ट किया करता है। उस अवसर पर भीलसमूह कहता है कि तुम्हारे समान अन्य कोई इस समय नहीं है। फिर भिल्लराज-कुशुंभ कुमार के चरणों में पड़ता है एवं क्षमाधर्म को मांगता है। वे मणि, स्वर्ण, कुंद के पुष्प और वस्त्रादि पदार्थ कुमार के सामने रखते हैं और कहते हैं-हे सुन्दर! जो तुम्हें रुचता हो वह ले लो। उसको सुनकर नृपनंदन (वरांग) कहता है-धन एवं दान की लोभी इच्छा करता है। क्या आकाश बादल आगमन की वांछा करता है अथवा धन लेकर कहाँ रखूगा, वन में निवास करता हूँ एवं सुमधुर फल खाता हूँ। द्रव्य (धन) ग्रहण नहीं करता हूँ, क्योंकि द्रव्य के बहुत शत्रु होते हैं। इस प्रकार कह करके फिर सुन्दर (कुमार) विहार करता है। जब वहां रास्ते में सूर्य अस्त हो जाता है तो वृक्ष पर चढ़कर रात्रि व्यतीत करता है। कुमार पुराने सुख-दुःख का चिन्तन करता है। सूर्य के उदय होने पर वह पुनः चलता है। चलते-चलते वहां पर पहुंचता है, जहां पर वणिक समूह रहता था। वणिक श्रेष्ठी ने देखकर उसे ग्रहण किया और पूछता है, तुम कौन हो? के नसे देश से आये हो अथवा किसी महीपति ने दूत रूप में भेजा है। इस तरह सुनकर उसने कुछ नहीं कहा। तो फिर उन्होंने कटुक वचनों से ताड़ित किया। दुष्ट-वणिक फिर पीड़ित करते हुए हाथ-मुष्टि से प्रहार करते हैं, तो भी बिना बोले ही प्रभुत्व को ज्ञात कराता है। सुन्दर (वरांग) शान्त होकर रक्षा के लिए कहता है। फिर वे सभी परस्पर बात करते हैं और उसे लेकर वणिपति को दिखाते हैं। इस महापुरुष को कोई भी आतापित नहीं करेगा।
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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