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________________ प्राच्यविद्यानुराग्यांशनम् अपभ्रंश भाषा में विरचित पंडित तेजपाल कृत वरंगचरिउ ग्रंथ का विहंगावलोकन किया। अपभ्रंश काव्य परंपरा में इस चरित काव्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। काव्यत्व के सभी गुण प्रकृत ग्रंथ में संप्राप्य हैं। अपभ्रंश भाषा साहित्य में चरित काव्य परंपरा को समुन्नत करने में वरंगचरिउ का अप्रतिम योगदान है। अपभ्रंश भाषा में लिखित वरंगचरिउ को प्रथम बार विद्वान लेखक डॉ. सुमत जैन ने विधिवत् संपादित करके हिंदी अनुवाद भी प्रस्तुत किया है। यह ग्रंथ अपभ्रंश भाषा प्रेमियों के लिए अत्युपयोगी सिद्ध होगा, अनुवाद होने से हिंदी भाषी भी इस ग्रंथ से लाभान्वित होंगे। साथ-साथ धार्मिक आस्थावान श्रावक-श्राविकायें एवं मुमुक्षु वर्ग प्रथमानुयोग के ग्रंथ के रूप में वरंगचरिउ का स्वाध्याय कर तत्त्वज्ञान में अभिवृद्धि कर शुद्ध आत्मतत्त्व की ओर अग्रसर होंगे। __ डॉ. जैन का यह श्लाघनीय कार्य प्राच्य विद्या जगत में प्रेरणादायी है। पांडुलिपि का संपादन एवं अनुवाद श्रम एवं समयसाध्य होता है। ज्ञानी होने पर भी हर कोई इस कार्य को करने में भयाक्रान्त रहता है, किंतु आपने धैर्यपूर्वक यह कार्य करके श्रुतसेवा का स्तुत्य कार्य किया है। ___ - डॉ. धर्मेन्द्रकुमार जैन प्राकृत-विकास अधिकारी, प्राकृत अध्ययन-शोध-केन्द्र, राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, जयपुर शुभानुशंसनम् डॉ. सुमतकुमार जैन द्वारा संपादित वरंगचरिउ की टंकित प्रति का आद्योपांत अध्ययन किया। इसके संपादन का कार्य प्रशंसनीय है। संपादन में जिस पाठ को इन्होंने ग्रहण किया है, वह मेरी दृष्टि में उचित है। मूल पाठ का हिंदी अनुवाद कर सोने में सुहागा डालने का कार्य किया है। हिंदी अनुवाद सरल और सुबोध है। अपभ्रंश भाषा से अनजान व्यक्ति भी वरंगचरिउ का रसास्वादन कर सकता है। इस ग्रंथ की भूमिका पूर्व पीठिका के रूप में सहायक बनती दृष्टिगोचर होती है। भूमिका को विस्तारित कर डॉ. जैन ने इसमें अन्य अत्यंत उपयोगी जानने योग्य विषयों की जानकारी उपलब्ध करवा दी है, इसके लिए भी वे धन्यवाद के पात्र हैं। यह रचना अपभ्रंश भाषा के जिज्ञासुओं के अतिरिक्त न केवल श्रावक-श्राविकाओं के लिए बहु उपयोगी है, बल्कि श्रमण-श्रमणियों के लिए भी। इसकी गुणवत्ता को दृष्टि में रखते हुए मेरी कामना है कि डॉ. जैन इसे प्रकाशित करवाने का प्रयत्न करें। इसकी प्रकाशित प्रति देखकर हमें बहुत प्रसन्नता होगी। __- डॉ. सुदर्शन मिश्र पूर्व प्राचार्य, दीपन चौधरी महाविद्यालय, गाजीपुर, बिहार
SR No.032434
Book TitleVarang Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumat Kumar Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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