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________________ श्लो. : 2 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन 123 ज्ञान, शुद्ध दर्शन जीव का लक्षण है। केवलज्ञान, केवलदर्शन ही परम उपादेय-भूत हैं। आत्मा ज्ञान-दर्शन से भिन्न कभी नहीं होती। ध्रुव, अखण्ड, चैतन्य-पिण्ड, ज्ञान-घन, आनन्द-कन्द जीव-द्रव्य निज-भाव में त्रिकाल व्यवस्थित रहता है, सावरण दशा में मति-श्रुत-अवधि मनःपर्यय ज्ञान तथा चक्षु-अचक्षु अवधि तीन दर्शन व चार ज्ञान के साथ जीव रहता है, यह क्षायोपशमिक दशा है, क्षायिक-अवस्था में जीव क्षायिक ज्ञान व क्षायिक दर्शन से युक्त होता है, यह क्षायिक ज्ञान-दर्शन युगपद् होता है, जो-कि निरावरण रहता है, जब आत्मा बहिरात्मपने से रहित होकर अन्तरात्मा होती है, (तब वह) अन्तरात्मा आत्म-विकास करते हुए परमात्मा की संज्ञा को प्राप्त होती है। परमात्म-पद की प्राप्ति कैवल्य ज्ञान (शुद्धज्ञान) व कैवल्य दर्शन (शुद्धदर्शन) के साथ ही होती है। जब-तक जीव को केवलज्ञान, केवलदर्शन प्रकट नहीं होता, तब-तक ज्ञानियो! परमात्म-संज्ञा प्राप्त नहीं होती, –यही भाव जिन कहलाते हैं, इन्हें ही अरहन्त कहते हैं, तेरहवें गुणस्थान में जीव परमात्मा बन जाता है। ये सकल परमात्मा कहलाते हैं, अशरीरी सिद्ध भगवान् निकल परमात्म-पद को प्राप्त होते हैं, सकल-निकल उभय परमात्मा शुद्ध ज्ञान-दर्शन से मण्डित हैं। मनीषियो! यहाँ पर यह स्पष्ट समझना- जो जीव चतुर्थादि गुणस्थान में ही अपने-आपको शुद्ध परमात्मा कहते हैं, उन्हें नय-विवक्षा से कहना चाहिए, वे शुद्ध निश्चय-नय से कहें, तो ठीक है, बिना नय-विवक्षा के यदि परमात्मा की संज्ञा स्वयं को देते हैं, तो यह केवली परमात्मा का अवर्णवाद है। केवलज्ञानी परमात्मा आहार-निहार से परे होते हैं। समोसरण में परमौदारिक शरीर से युक्त सप्त धातु से रिक्त होते हैं,- पर ये रागी-भोगी, मृगनयनी को नयनों में स्थापित किये, काम-भोग में लिप्त, वित्त-वृत्ति वाले जीव स्वयं को परमात्मा कहने लगें तो, ज्ञानी! ध्यान दो- वीतराग-शासन में भोग त्यागने की आवश्यकता नहीं, द्रव्य-दृष्टि से शुद्ध सत्ता का ज्ञान तो होता है, पर अनुभूति नहीं होती, बिना तत्पर्याय की प्रत्यासत्ति (तद् पर्याय युक्त) के तद्प अनुभवन नहीं होता, जैसे-कि सम्पूर्ण व्यंजन, खाद्य पदार्थ गेहूँ से बनते हैं, पर गेहूँ के खाने पर वे स्वाद नहीं आते, उन व्यंजनों की पर्याय का होना अनिवार्य है, पूड़ी पर्याय बनाने पर ही पूड़ी का स्वाद आता है, उसी प्रकार अरहन्त-सिद्ध पर्याय के प्रकट होने पर ही शुद्ध ज्ञान-दर्शन-स्वभावी परमात्मपद की अनुभूति होती है। अन्य अवस्था में ज्ञानानुभूति श्रद्धानुभूति तो हो सकती है, पर परमात्मा की साक्षात् जो अनुभूति है, वह तो परमात्मा बनने पर ही होगी। परोक्षानुभूति ज्ञान से हो सकती है, लेकिन प्रत्यक्ष परमात्मानुभूति तो परमात्मपद की प्राप्ति होने पर ही होगी। यहाँ विशेष ध्यान देना
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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