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________________ 221 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन श्लो. : 2 बात ध्यानस्थ योगी चलते भी नहीं हैं, उस समय खाते-पीते भी नहीं हैं...., तो ऐसे योगी क्या आत्मपने से शून्य हो गये? ....आत्मत्वपने से शून्य हो जाएँगे, तो जड़ता आ जाएगी, जड़ता जहाँ है, वहाँ चैतन्यता का अभाव हो गया, जब ध्यानस्थ योग की चैतन्यता नष्ट हो गई, यानी जीवत्व-भाव का अभाव हो गया, तो-फिर स्वयं विचार कीजिए कि ऐसी स्थिति में ध्यान का फल निर्वाण किसे प्राप्त होगा?.......... क्योंकि आपके सिद्धान्त से आत्मा लोष्ठवत् हो गई, आगे भी आपकी परिभाषा से सिद्धान्त का घात होता है; समझो- अयोग केवली एवं सिद्ध भगवन्त कहीं भी चलते-फिरते नहीं, खाने का तो प्रश्न ही नहीं है, आहार-संज्ञा छठवें गुणस्थान तक ही होती है, सातवें गुणस्थान से आहार-संज्ञा का ही अभाव हो जाता है, अतः आपके कथन अनुसार सिद्ध भगवान् अचेतन हो जाएँगे। ज्ञानियो! संसार-अवस्था में राग के साथ जो प्रवृत्ति है, उसी में आहारादि है, राग-रहित अवस्था में नहीं, जीव की पहचान चेतन-गुण से करना । आचार्य भगवन् उमास्वामी महाराज ने जगत्प्रसिद्ध ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र में जीव का लक्षण उपयोग ही किया है; यथाउपयोगो लक्षणम्।। -तत्त्वार्थसूत्र, 2/8 आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में उपयोग के इस लक्षण की बहुत सुंदर व्याख्या की हैउभयनिमित्तवशादुत्पद्यमानश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः ।। -सर्वार्थसिद्धि, 2/8 पैरा, 271 जो अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकार के निमित्तों से होता है और चैतन्य का अन्वयी है अर्थात चैतन्य को छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता, वह परिणाम उपयोग कहलाता है। आत्मा उपयोग के अभाव में कभी नहीं रहती, चैतन्य गुण ही जीव का सत्यार्थ लक्षण है, चेतना किसी भी अवस्था में नष्ट नहीं होती, जीव चाहे मूर्च्छित हो, चाहे सुप्त अवस्था में हो अथवा सिद्ध-अवस्था में हो, चैतन्य-धर्म टंकोत्कीर्ण ज्ञायकस्वभावी रूप त्रैकालिक है- संसारी और मुक्त चैतन्य में अन्तर इतना समझना कि संसारी जीव अशुद्ध चेतना में जीता है, मुक्त जीव शुद्ध चेतना से युक्त होते हैं, परन्तु चैतन्य-धर्म त्रैकालिक रहता है, वह किसी भी काल में, किसी भी क्षेत्र में, अन्य किसी भी अवस्था में विनाश को प्राप्त नहीं होगा, -यही जीव का सत्यार्थ लक्षण है। चार प्रकार का दर्शन, आठ प्रकार का ज्ञान सामान्यतः जीव का लक्षण है, निश्चय से शुद्ध
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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