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________________ श्लो . : 1 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन 119 बद्ध का ही मोक्ष है। मोक्ष का मोक्ष नहीं है। जैन कुल में जन्म लेकर, आगमअध्ययन के बाद अल्पधी-जनों की मान्यता है कि आत्मा तो शुद्ध ही है। अहो ज्ञानियो! स्वभाव से सिद्ध है, कर्म-निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से तो सभी संसारी जीव सिद्ध के समान शुद्ध हैं; पर सर्वदा प्रत्येक आत्मा को शुद्ध मानना सदा शैव-दर्शन की पुष्टि है। विपरीत मान्यता को स्वीकारने के समय एक क्षण विचार तो कर लिया करो, पूर्व में ही आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी से पृच्छना कर लेते, तो उत्तर प्राप्त हो जाता कि आत्मा निरपेक्ष दृष्टि से प्रत्येक स्थिति में क्या शुद्ध ही है? ....नहीं, ज्ञानी! पंचास्तिकाय ग्रंथराज में आचार्य-देव स्पष्ट कह रहे हैं णाणावरणादीया भावा जीवेण सुठु अणुबद्धा। तेसिमभावं किच्चा अभूदपुव्वो हवदि सिद्धो।। -पंचास्तिकाय, गा. 20 अर्थात् इस संसारी जीव के द्वारा ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्म की अवस्थाएँ गाँठ-रूप में बाँधी हुई हैं, उन-सब का नाश करके अभूतपूर्व अर्थात् जो पहले कभी नहीं हुआ, -ऐसा सिद्ध हो जाता है। अन्य मुक्त आत्माओं के समान, मुक्त होने के कारण ईश्वर भी अनादि से मुक्त नहीं है, -ऐसा कथन होने से यहाँ कर्मों से मुक्त-स्थित-रूप कथन के द्वारा ईश्वर की अनादि मुक्त-अवस्था-रूप मान्यता को खंडित किया गया है तथा आत्मा संसारावस्था में सदा कर्म-सहित ही रहता है, कभी भी उससे मुक्त नहीं होता, इस एकान्त-मान्यता का भी निराकरण हुआ, क्योंकि कर्मों का अनादि-बन्धन तथा बाद में उनसे मुक्ति स्वीकार न करने पर संसार और मोक्ष की व्यवस्था ही सिद्ध नहीं होती है। ज्ञानादि से अमुक्त-भाव है, -इस कथन द्वारा बुद्धि और विशेष गुणों का अभाव हो जाना पुरुष का मोक्ष है, यह नैयायिक-वैशेषिक की मान्यता है तथा आत्मा ज्ञान से भिन्न ही है, –वैशेषिक मान्यता, -इन मान्यताओं का निराकरण हो जाता है। 'अक्षय' विशेषण से शून्यवादिता, नैरात्म्यवादिता और क्षण-क्षयिकवादिता रूप मान्यताएँ खंडित हुईं। 'ज्ञानमूर्ति' विशेषण द्वारा ज्ञान से आत्मा का हीनाधिक प्रमाणपना निराकृत हुआ। “परम" विशेषण द्वारा आत्मा की बहिरात्मा, अन्तरात्मा एवं परमात्मा इन तीनों दशाओं का कथन-पूर्वक जिसप्रकार बहिरात्माओं को अन्तरात्मा-दशा आराध्य है, उसीप्रकार आचार्य भगवंत अकलंक देव ने अन्तरात्माओं को परमात्म-दशा की आराध्यता का प्रतिपादन किया है ।।१।। ***
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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