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________________ xlivI स्वरूप-संबोधन-परिशीलन भेदाभेद विषयक मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा आदि क्रमशः होने वाले चार मति-ज्ञानों में पूर्व-पूर्व को प्रमाण तथा उत्तर-उत्तर ज्ञान को फल-रूप माना, जिससे प्रमाण-तत्त्व के स्वरूप, संख्या, विषय और फल के सम्बन्ध में विविध विप्रतिपत्तियों का निरसन होने से प्रमाण-शास्त्र सुव्यवस्थित हो गया। ___ वाद के एक अंग जय-पराजय की व्यवस्था में भी श्री अकलंक देव ने न्याय के अहिंसक दृष्टिकोण को महत्त्वपूर्ण मानते हुए कहा कि स्व-पक्ष की सिद्धि की जय है, और दूसरे पक्ष की असिद्धि ही उसकी पराजय है। उनका तत्त्वार्थवार्तिक सभाष्य तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ पर श्री उद्योतकर के ग्रंथ न्याय-वार्तिक की शैली का अनुसरण है। यह व्याख्या सहित वार्तिक-ग्रंथ है। प्रथम, पंचम एवं चतुर्थ अध्याय की व्याख्या में श्री अकलंक देव ने अनेकान्त की सिद्धि करते हुए सप्तभंगी का विशद विवेचन किया है। उन्होंने "अनेकान्तवाद न संशयवाद है, न ही छलवाद है" का संयुक्तिक विवेचन किया है। उन्होंने सांख्य, न्याय, वैशेषिक तथा बौद्धों के मोक्ष के कारणों का निराकरण किया, जिसमें बौद्धों का प्रतीत्यसमुत्पादवाद भी है। उनका विस्तृत और गम्भीर अध्ययन इस तथ्य से प्रकट होता है कि उन्होंने पातंजल महाभाष्य, वाक्यपदीय, न्यायसूत्र, वैशेषिकसूत्र, जैमिनिसूत्र, योगसूत्र, सांख्यकारिका, अभिधर्मकोश, प्रमाणसमुच्चय, मतान्तरसिद्धि आदि अनेक दर्शन-ग्रंथों के उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। उनके अष्टशती-ग्रंथ पर आचार्य विद्यानंद की अष्टसहस्री-टीका है, जिसे कष्टसहस्री भी कहा जाता है। स्वरूप-सम्बोधन के परिशीलन के प्रारम्भ में आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार का उद्धरण दिया है एयत्तणिच्छयगओ समओ सव्वत्थसुंदरो लोए। बंधकहाएयत्ते तेण विसंवादिणी होई।।31 सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा। एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स ।।4।। इसप्रकार उस एकत्व-विभक्त स्वरूप को सम्बोधित करने को तत्पर हो, उन्होंने सावधान किया कि यदि उसे लख लो, तो पार हो जाओगे और यदि न लख सको, तो उसे छल या भ्रम रूप में ग्रहण कर लेना। आचार्य विशुद्धसागर ने परिशीलन शब्द क्यों चुना?.... परिशीलन "शील" शब्द से बना है, जिसका अर्थ-ध्यान, भावना, सेवा, पूजा, क्रियान्वयन, अभ्यास, अति-लग्न से लगे रहना, संस्कार में ढाल लेना, पुनः-पुनः अभ्यास-रत रहना आदि है। परिशील् का अर्थ व्यवहार तथा उपयोग में बहुधा लाना, बारंबार सुव्यवहार में लाना, स्मृति में बनाये रखना, संसर्ग-सम्पर्क में छे लगे रहना. निरन्तर अध्यवसाय में लगाना. अध्ययन में लगे रहना आदि होता है। इसीप्रकार परिशीलन का बोध होता है। हम यहाँ स्वरूप-सम्बोधन की गाथा 8 पर उनके परिशीलन को प्रस्तुत करेंगे। शिष्य जिज्ञासा करता है- "यह आत्मा विधि-रूप है या निषेध-रूप है। मूर्तिक है या अमूर्तिक है?" परिशीलन इसप्रकार है- (कोष्ठक के शब्द प्रस्तावक के हैं)
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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