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________________ स्वरूप - संबोधन - परिशीलन खण्डन-मण्डन के ऐसे चतुरांग में श्री भट्टाकलंक ने अपने से पूर्व हुए जैनन्याय के विविध रूपों का आकलन किया व उन्होंने यह आवश्यक समझा कि जैन परम्परा के सभी तत्त्वों का निरूपण तार्किक - शैली से संस्कृत भाषा में ठीक वैसा ही होना चाहिए, जैसा वैदिक एवं बौद्ध परम्परा में बहुत पहले हो चुका था। उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर बौद्ध दर्शनादि के परम्परागत ज्ञान का गहन अध् ययन किया, तथा बौद्ध परम्परा में धर्मकीर्ति और अन्य प्रखर - तार्किकों की शैली आदि को तथा ब्राह्मण - परम्परा के कुमारिल भट्ट - जैसे उद्भट विद्वानों के समसामयिक न्याय-विषयक ज्ञान वा विद्या का गम्भीर अध्ययन किया। उक्त दोनों उद्भट विद्वानों ने अपनी कृतियों में जैन - परम्परा के न्याय-ज्ञान का खण्डन भरपूर किया था । अकलंक ने उस चुनौती को स्वीकार कर उनके खण्डन तथा जैन-न्याय के मण्डन हेतु जो अकथ - प्रतिभा से ग्रंथ रचे, उनके विषय में पं. सुखलाल संघवी लिखते है "अकलंक ने न्याय प्रमाण - शास्त्र का जैन परम्परा में जो प्राथमिक-निर्माण किया, जो परिभाषाएँ, जो लक्षण व परीक्षण किया, जो प्रमाण, प्रमेय आदि का वर्गीकरण किया और परार्थानुमान तथा वाद, कथा आदि पर मत प्रसिद्ध वस्तुओं के सम्बन्ध में जो प्रणाली स्थिर की, संक्षेप में अब तक जैन - परम्परा में वह नहीं थी, पर अन्य परम्पराओं में प्रसिद्ध ऐसे तर्क - शास्त्र के अनेक पदार्थों को जैन- दृष्टि से जैन- परम्परा में जो स्वात्मभाव किया तथा आगम-सिद्ध अपने मन्तव्यों को जिस तरह दार्शनिकों के सामने रखने योग्य बनाया, वह सब छोटे-छोटे ग्रंथों में विद्यमान उनके असाधारण व्यक्तित्व का तथा न्याय-प्रमाण - स्थापना -युग का द्योतक है।" अकलंक देव का पुरुषार्थ उन्हीं के न्याय - विनिश्चय के प्रारम्भिक श्लोक से प्रकट हो जाता है। यथा / xliii बालानां हितकामिनामतिमहापापैः पुरोपार्जितैः । माहात्म्यात्तमसः स्वयं कलिबलात् प्रायो गुणद्वैषिभिः । । न्यायोऽयं मलिनीकृतः कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते । सम्यग्ज्ञानजलैर्वचोभिरमलं तत्रानुकम्पापरैः ।। उनके समय शास्त्रार्थों की धूम थी । उनमें युक्तियों के साथ छल, जाति और निग्रह - स्थान- जैसे शस्त्रों का भी प्रयोग किया जाता था । उनके संचालन में निपुणता पाये बिना विजय पाना असम्भव था; परन्तु जो सामग्री श्री अकलंक देव को उत्तराधिकारी रूप में प्राप्त हुई थी, वह अपर्याप्त थी, तथा न्याय के शोधन एवं अन्याय के परिमार्जन हेतु अनेकान्तवाद एवं अहिंसावाद का अवलम्बन लेते हुए सात्त्विक उपायों को परिपुष्ट करने की आवश्यकता थी, जिसे उन्होंने प्राण-पण से निभाया । अकलंकदेव ने प्रत्यक्ष प्रमाण के विकल- प्रत्यक्ष और सकल- प्रत्यक्ष भेदों के स्थान में सांव्यवहारिक- प्रत्यक्ष और मुख्य- प्रत्यक्ष भेद किये। उन्होंने इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाले मति - ज्ञान को सांव्यवहारिक - प्रत्यक्ष नाम देकर प्रत्यक्ष के अन्तर्गत सम्मिलित कर दिया। इस परिवर्तन से जैन- प्राचीन परम्परा को भी क्षति नहीं हुई, और विपक्षियों को भी क्षोद-क्षेम करने का अवसर नहीं रहा । सांव्यवहारिक का अर्थ होता है- पारमार्थिक नहीं, अर्थात् व्यावहारिक रूप से इन्द्रिय-ज्ञान प्रत्यक्ष है, परमार्थ से वह परोक्ष ही है। उन्होंने आचार्य श्री समन्तभद्राचार्य के प्रमाण और फल सम्बंधी
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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