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________________ स्वरूप-संबोधन-परिशीलन Ixxxix आचार्य श्री विशुद्धसागर जी ने भट्ट आचार्य श्री अकलंकदेव जी के अध्यात्म-ग्रंथ "स्वरूपसम्बोधन" का परिशीलन प्रस्तुत किया है। यह एक अत्यंत गम्भीर अध्ययन की वस्तु है, क्योंकि अE यात्म में न्याय का प्रयोग एक असाधारण प्रतिभा का कार्य है। यह परिशीलन भी न्याय के गहन पारिभाषिक शब्दों को लेकर हुआ है, अतः न्याय के विषय में भूमिका प्रस्तुत करना आवश्यक हो जाता है। जैनधर्म का प्रवर्तन 24 तीर्थंकरों द्वारा हुआ, जो वैदिक एवं बौद्ध धर्मों से पृथक् एवं स्वतंत्र धर्म के रूप में प्रसिद्ध हुआ। इसका मूलाधार कर्मसिद्धान्त, तत्त्वनिरूपण एवं विशिष्ट आध्यात्मिकता है। इसका उल्लेख अकलंकदेव जी ने "लघीयस्त्रय" के ‘मंगलाचरण' के पद्य में किया है। द्वादशांग श्रुत में तीर्थंकर महावीर ने जहाँ धर्म का उपदेश दिया, वहाँ दर्शन और न्याय का भी उपदेश दिया। इन तीनों में भेद करते हुए उन्होंने बताया कि मुख्यतया आचार का नाम धर्म है और धर्म का जिन विचारों के द्वारा समर्थन एवं संपोषण किया जाता है, वे विचार दर्शन हैं। जब धर्म के संपोषण के लिए प्रस्तुत विचारों को युक्ति-प्रतियुक्ति, खंडन-मंडन, प्रश्न-उत्तर एवं शंका-समाधानपूर्वक दृढ़ किया जाता है, तब वह न्याय है। दृष्टिवाद अंग में जैनदर्शन और न्याय के उद्गम के पर्याप्त बीज मिलते हैं। आचार्य भूतबली और पुष्पदंत द्वारा निबद्ध षट्खंडागम में जो दृष्टिवाद अंग का अंश रूप है, 'सिया पज्जत्ता', 'सिया अपज्जत्ता', 'मणुस अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया', 'असंखेज्जा' आदि-जैसे 'सिया' (स्यात्) शब्द और प्रश्नोत्तर-शैली में किये अनेक वाक्य पाये जाते हैं। अकलंकदेव तो कहते हैं कि ऋषभ से लेकर महावीर-पर्यन्त सभी तीर्थकर स्याद्वादी हैं। ___बौद्ध परम्परा के प्रचण्ड न्यायशास्त्री धर्मकीर्ति ने जब स्याद्वाद और अनेकान्त पर अनेक दूषणों का आरोप किया, तब अकलंक देव ने उनका सयुक्तिक परिहार किया। उनका महत्त्वपूर्ण कार्य यह था कि जैन दर्शन एवं जैन न्याय के जिन आवश्यक तत्त्वों का विकास और प्रतिष्ठा उनके समय तक नहीं हो सकी थी, उन्हें उन्होंने विकसित तथा प्रतिष्ठित किया। उन्होंने अपने चारों तर्क-ग्रंथों में अन्य दार्शनिकों की एकान्त-मान्यताओं और सिद्धान्तों की कड़ी तथा मर्म-स्पर्शी समीक्षा की। उन्होंने जैनदर्शन में मान्य प्रमाण, नय, निक्षेप के स्वरूप, भेद, लक्षण, प्रमाण-फल का विवेचन किया। प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष के सिवाय सांव्यावहारिक और मुख्य प्रकारों की प्रतिष्ठा, परोक्ष-प्रमाण के स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम आदि भेदों का निर्धारण, उनकी सयुक्तिक सिद्धि व लक्षणों का प्रणयन किया। इन्हीं परोक्ष भेदों में उपमान, अर्थापत्ति, संभव, अभाव आदि अन्य दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत प्रमाणों का अंतर्भाव किया। सर्वज्ञ की विविध युक्तियों से विशेष सिद्धि की, अनुमान के साध्य-साधन-अंगों के लक्षण और भेदों का विस्तृत निरूपण किया। इसके लिए हेतु, पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर आदि अनिवार्य नये हेतुओं को प्रतिष्ठित किया। अन्यथानुपत्ति के अभाव से एक अकिंचित्कर नामक हेत्वाभास को स्वीकार किया। उसके भेद रूप से असिद्धादि हेत्वाभासों का प्रतिपादन किया। जय-पराजय के निर्णय की व्यवस्था की। साथ ही दृष्टान्त, धर्मों, वाद, जाति और निग्रह-स्थान के स्वरूप को नया रूप दिया। इसी कारण से अकलंक देव को मध्यकालीन जैनदर्शन व जैनन्याय का प्रतिष्ठाता कहा जाता है।
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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