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________________ Xxxviii / स्वरूप-संबोधन-परिशीलन में दर्शन देकर कहा था कि तुम अपने प्रश्नों को प्रकारान्तर से उपस्थित करने पर जीत जाओगे। ___ अकलंक ने मल्लिषेण-प्रशस्ति के अनुसार राष्ट्रकूट वंशी राजा साहसतुंग की सभा में सम्पूर्ण बौद्ध विद्वानों को पराजित किया। फलतः दिग्विजयी शास्त्रार्थी विद्वान् अकलंक को विद्यानन्द ने सकल-तार्किक चक्र-चूड़ामणि कहा है। धनञ्जय की नाममाला में अकलंक का प्रमाण, पूज्यपाद का व्याकरण और धनञ्जय कवि का काव्य, इत्यादि इन तीनों को अपश्चिमरत्न कहा है। पं. कैलाशचंद्र शास्त्री के अनुसार अकलंक का समय 620-680 ईस्वी सन् तथा पं. महेन्द्रकुमार के अनुसार यह समय ईस्वी सन् 720-780 निर्धारित किया गया है। जिनसेनाचार्य ने आदिपुराण में उनके सम्बन्ध में श्लोक दिया है। यथा भट्टाकलंकश्रीपालपात्रकेसरियाणां गुणाः । विदुषां हृदयारूढाः, हारायन्तेऽतिनिर्मलाः ।। 1-53।। आचार्य श्री अकलंकदेव द्वारा रचित निम्नलिखित ग्रंथ उपलब्ध होते हैं1. तत्त्वार्थसूत्र की टीका के रूप में सविवृति-राजवार्तिक 2. आप्त-मीमांसा की टीका के रूप में अष्टशती (देवागम-विवृति) · न्याय ग्रंथों में अ. लघीयस्त्रय-सविवृति ब. न्याय-विनिश्चय-सविवृति स. सिद्धि-विनिश्चय द. प्रमाण-संग्रह इ. न्याय-चूलिका 4. अध्यात्म ग्रंथ के रूप में स्वरूप-संबोधन 5. बृहत्त्रयम् पजा-पाठ के रूप में अकलंक-स्तोत्र ये सभी ग्रंथ संस्कृत भाषा में हैं। इन ग्रंथों में प्रयुक्त शैली गूढ़ एवं शब्दार्थ-गर्भित है अर्थात् वह जिस विषय को भी ग्रहण करते हैं, उसका गम्भीर और अर्थपूर्ण वाक्यों द्वारा विवेचन करते हैं। इससे कम-से-कम शब्दों में अधिकतम विषय का निरूपण हो जाता है। इन रचनाओं से उनका समसामयिक षड्-दर्शनों का सूक्ष्म चिन्तन स्पष्ट हो जाता है। यह उनके अतल व तलस्पर्शी ज्ञान का परिचय देता है। साथ ही उनकी रचनाओं में अर्थ की गांभीर्यता, व्यंग्य की सरसता, दर्शन में भी साहित्य-जैसी प्रतीति स्पष्टतः होती है। उनकी प्रतिभा असाधारण थी, जिससे वे कठिन-से-कठिन विषय को सरल रूप से प्रस्तुत कर देते थे। उनकी कारिकाएँ सामान्यतः अनुष्टुप छन्दों में लिखी गयी हैं, किन्तु उन्हें शार्दूल विक्रीडित और स्रग्धरा छन्द भी विशेष प्रिय हैं। न्याय के प्रकरणों में उद्देश्य- निर्देशक और उपसंहारात्मक पद्यों में इन छन्दों का प्रयोग पाया गया है। उन्होंने मंगलाचरण के पद्यों में अलंकारों का सुंदर नियोजन भी किया है। इसीप्रकार अनुप्रास, यमक आदि अलंकार भी इन ग्रन्थों में प्रयुक्त हुए हैं। शैली भी धर्मकीर्ति के सदृश है।
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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