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________________ श्लो. : 26 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन 1217 ज्ञानियो! हृदय-आँगन को स्वच्छ रखो, वहीं जिन-भारती रहती है, जहाँ विषय-कषाय का कचरा नहीं रहता, विषय-कषाय का अभिनन्दन करने वाले के यहाँ जिन-भारती का सम्मान नहीं होता, जहाँ जिन-मुखोद्भूत वाणी का आदर होता है, वहाँ विषय-कषाय स्वयमेव स्थान छोड़ देते हैं। सम्पूर्ण साधना प्रज्ञा की प्रशस्तता पर है, प्रज्ञा प्रशस्त है, तो शरीर-वाणी-मन आदि सभी प्रशस्त रहते हैं, इसीलिए सर्व-धनों में विद्या-धन को ही श्रेष्ठ कहा गया है, सत्-पुरुषों को विद्या-धन की अनिवार्यतः रक्षा करनी चाहिए। रागी को वैराग्य-दायिनी है श्रुताराधना, वैरागी को चारित्र-दायिनी है श्रुताराधना, चारित्रवान् को समाधि और निर्वाण को देने वाली है श्रुताराधना, इसलिए अहो ज्ञानियो! अध्ययन भी आगमानुसार ही करो, परमात्म-सम्पदा की प्राप्ति चाहिए है, तो जो आचार्य-प्रवर वट्टिकेर स्वामी ने भी कहा है, उसे बड़े समर्पण-भाव से आत्मसात करना चाहिए पडिलेहिऊण सम्मं दव्वं खेत्तं च कालभावे य। विणय-उवयार-जुत्तेण ज्झेदव्वं पयत्तेण।। -मूलाचार, गा. 170 अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की सम्यक् प्रकार से शुद्धि करके विनय और उपचार से सहित होकर प्रयत्न-पूर्वक अध्ययन करना चाहिए। शरीर-गत शुद्धि द्रव्य-शुद्धि है, जैसे- शरीर में घाव, पीड़ा, कुष्ट आदि का नहीं होना। भूमि-गत शुद्धि क्षेत्र-शुद्धि है, जैसे- चर्म, अस्थि, मूत्र, मलादि का सौ-हाथ-प्रमाण भूमि-भाग में नहीं होना। संध्या-काल, मेघ-गर्जना-काल, व्युत्पाद और उत्पात आदि काल से रहित समय का होना काल-शुद्धि है। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि भावों का त्याग करना भाव-शुद्धि है अर्थात् इसप्रकार से क्षेत्र में होने वाली अशुद्धि को दूर करना, उस क्षेत्र से अतिरिक्त क्षेत्र का होना क्षेत्र-शुद्धि है। शरीर आदि का शोधन करना अर्थात् शरीर में ज्वर आदि या शरीर से पीव व खून आदि के बहते समय के अतिरिक्त स्वस्थ शरीर का होना द्रव्य-शुद्धि है, संधि-काल-आदिक अतिरिक्त काल का होना काल-शुद्धि है और कषायादि-रहित परिणमन होना भी भाव-शुद्धि है। प्रयत्न-पूर्वक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को सम्यक् प्रकार से शोधन करके विनय और औपचारिक क्रियाओं से युक्त होकर मुनिराज को गुरु-आचार्यादि के श्री-मुख से सूत्रों का अध्ययन करना चाहिए। जो साधक व श्रावक उक्त विधि का ध्यान नहीं रखता, वह अनेक प्रकार के अशुभ को प्राप्त होता है। पुनः यहाँ कोई प्रश्न कर सकता है कि जिनवाणी भी कहीं
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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