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________________ 216/ स्वरूप-संबोधन-परिशीलन श्लो . : 26 जिणवयणमोसहमिणं विसय-सुहविरेयणं अमिदभूयं । जर-मरण-वाहि-हरणं खय-करणं सव्वदुक्खाणं।। -दंसणपाहुण, 17 भगवज्जिनेन्द्र के वचन औषधि-रूप हैं, विषय-सुख के विरेचक हैं, अमृत-भूत हैं, जन्म-मरण-रूप व्याधि का नाश करने वाले हैं और सभी दुःखों का क्षय करने वाले हैं। पंचम काल में उपयोग को निर्मल रखने के लिए श्रेष्ठ साधन स्वाध्याय ही है, दीर्घ समय तक जीव ध्यान-चिन्तन नहीं कर सकता, सम्पूर्ण साधनाओं में सरलसहज-साधना व मन-वशीकरण का मूल-मंत्र जिनागम का सतत स्वाध्याय है, ग्रन्थ-कर्ता ने एक बहुत सुंदर शब्द का प्रयोग किया है, पठन-पाठन, कथन-श्रवण के साथ प्रयोग किये गए "आदरात्" शब्द का विशेष ध्यान रखें, बिना आदर के श्रुत कर्म-हानि के स्थान पर कर्म-बंध का कारण है, -ऐसा समझना। वृद्ध आचार्यों की परम्परा में श्रुताराधना के लिए विनय-विशुद्धि और शुद्धि इनका विशेष ध्यान रखने की बात की गई है, जो श्रुत के लोभ में अशुद्ध-अवस्था में या अनधिकृत-अवस्था में सिद्धान्त-शास्त्रों का अध्ययन करते हैं, वे अज्ञ दुःख को प्राप्त होते हैं। शास्त्र-वाचन के समय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की शुद्धि पर विशेष ध्यान रखना चाहिए, समुचित समय पर किया गया कार्य ही फलित होता है; जिसप्रकार असमय में उत्तम भूमि में डाला गया उत्तम बीज भी फलित नहीं होता, उसीप्रकार कोई यों कहे कि जिनवाणी तो श्रेष्ठ है, कभी भी पढ़ सकते हैं, -ऐसा बोलने वाला अभी सत्यार्थ-श्रुत से अनभिज्ञ है, -ऐसा समझना चाहिए। कालादि की शुद्धि-पूर्वक की गई श्रुताराधना मोक्ष-फल-रूप फलित होती है, प्रमाद छोड़कर प्रयत्न-पूर्वक सूत्राध्ययन करने वाला प्रशस्त प्रज्ञावान् महापुरुष होता है, जिसके पांडित्य की सुगन्ध सर्वत्र व्याप्त होती है, सूर्य अस्त हो जाता है, परन्तु विनयवान् श्रुत-पाठी का यश कभी भी अस्त नहीं होता, द्रव्य-प्राणों का वियोग हो जाता है, परन्तु यश-रूपी प्राणों का नाश नहीं होता, प्रज्ञावान् विद्वान् सर्वत्र सम्मान को प्राप्त होता है, जो जीव श्रुत विनय करता है, उसकी विनय सारा लोक करता है, सरस्वती की आराधना त्रिलोक-वंदना एक-स्थान से करा देती है। लघुता, विनय, विशुद्धि, भद-परिणाम, उपशम-भाव, भक्ति, श्रद्धा, विवेक, चारित्र आदि ये-सब सरस्वती को निज-कंठ में विराजमान कराने के उपाय हैं, उपरोक्त गुणी के प्रज्ञा-भवन में वाग्वादिनी स्वयमेव आकर विराज जाती हैं।
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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