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________________ श्लो. : 25 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन 1209 जिन्हें युवा अवस्था की कामुकता नहीं सता सकी; माँ का दुलार, पिता का प्यार, भाई का स्नेह, स्त्री का राग जिनके अन्तःकरण को विचलित नहीं कर सका, ऐसा विशुद्ध योगी ही सत्यार्थ-बोध को प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शन सब गुणों में प्रधान है, ज्ञानियो! प्राण नष्ट हो जाएँ, पर श्रद्धा-गुण को नष्ट नहीं होने देना, जिसकी श्रद्धा दृढ़ है, उसका ज्ञान भी निर्मल होगा; यों कहना चाहिए कि सम्पूर्ण मोक्ष-मार्ग की आधार-शिला सम्यक्त्व है, उसके साथ ज्ञान-चारित्र का होना अनिवार्य है, तभी मोक्ष-मार्ग परिपूर्ण कहलाएगा, एक-एक करके मोक्ष-मार्ग नहीं है, तीनों की एकता ही मोक्ष-मार्ग है, व्यवहार से गुरु के द्वारा दिये गए व्रतों का पालन भव्य जीव करता है, गुरु-शिष्य के सम्बन्ध से रत्नत्रय-धर्म चलता है, द्वैत-भाव है, साथ में जिन-मुद्रा, पिच्छी-कमण्डलु द्रव्य-संयम के चिह्न हैं, इनके सद्-भाव में जगत् पहचानता है कि कोई मुनिराज हैं, –यह भेद-दृष्टि से जिन-मुनि की पहचान है, भेद-दृष्टि से जैन मुनिराज को बाल-गोपाल तक जानते हैं। अभेद-दृष्टि से मुनिराज को तो भाव-लिंगी मुनिराज स्वानुभव से स्वयं ही जानते हैं, या फिर प्रत्यक्ष-ज्ञानी जानते हैं। व्यवहार-मुनि संयोगी भावों से होते हैं, निश्चय के मुनिराज पर-से असंयोगी-भाव से होते हैं। व्यवहार-मुनिराज के पास पिच्छी-कमंडलु, जिन-लिंग का संयोग रहता है, निश्चय-मुनिराज मात्र स्वानुभूति का आनन्द लेते हैं, वहाँ कोई विकल्प-भाव नहीं होते, द्रव्यों का संयोग तो बहुत-दूर है, वहाँ पर विकल्प-भावों का भी संयोग नहीं है, पर विशिष्ट बात यह समझना है कि बिना व्यवहार-मुनि बने हुए निश्चय-मुनि-दशा प्रकट होती ही नहीं। साध्य-साधन-भाव है, व्यवहार साधन है, निश्चय साध्य है, -सर्वत्र ऐसा ही समझना, जो अल्पधी साधन के अभाव में साध्य की सिद्धि करने बैठ जाते हैं, वे बन्ध्या के लला को आकाश के पुष्प से खिला रहे हैं। तत्त्व के कथन करने से पूर्व विवेक का प्रयोग विद्वानों को तो करना चाहिए, जो भी कथन हो, वह आगम एवं तर्क-सम्मत हो, –यह होना ही चाहिए, जो बात लौकिक कार्य की सिद्धि में घटित नहीं होती, वह परमार्थ की सिद्धि में कैसे घटित होगी?... क्यों ज्ञानी! बिना पात्र के भी खीर पकती है क्या?. .. तो-फिर बिना साधन के साध्य की सिद्धि कैसे होगी?... अल्प-प्रज्ञा ही स्वयं प्रयोग कर लें, तो व्यर्थ के असत्य-मार्ग से रक्षा हो सकती है। जिनवाणी के अनुसार भूतार्थ-कथन होना चाहिए, उन्मत्त पुरुष के सदृश जो प्रयोजनवान् वचन बोलना भूल चुका है, प्रयोजनवान् व अप्रयोजनवान् में भेद ही जिसे समझ में नहीं आता है, जिसके शब्दों का वाच्य-वाचक-भाव ही समाप्त हो चुका हो, कहना ही जिसका लक्ष्य है, क्योंकि कहना है, इसलिए बस कहना है, पर कोई विवेक
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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