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________________ श्लो. : 21 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन 1181 कालिया-नाग को भेद-विज्ञान-रूपी मंत्र के द्वारा स्तंभित कर इसके अन्तरंग में निहित रत्नत्रय-धर्म की मणि को प्राप्त कर लेता है। तृष्णा चित्त को ऐसे विकृत करती है, जैसे- मधुर-दुग्ध को नीबू की एक बूंद क्षण में ही विकृत कर देती है, उसीप्रकार तृष्णा चैतन्य-धर्म की मधुरता को क्षार-क्षार कर देती है, सुख वहीं है, शांति भी वहीं है, जहाँ तृष्णा का वास नहीं है, तृष्णा एवं आत्म-शान्ति में सौत का सम्बन्ध है, दोनों एक-साथ एक-दूसरे को देखना पसंद नहीं करते, लोक-इतिहास में सर्वत्र प्रसिद्ध है सौत की ईर्ष्या-दाह । नारी पर्याय में तीव्र कष्ट का कोई कारण है, तो वह सौत की ईर्ष्या है। स्वयं के सामने यह महीषी-जैसा पद भी क्यों न हो, पर सौत की ईर्ष्या उस पद का आनन्द-पान नहीं करने देती, ज्ञानियो! जैसे- किसी व्यक्ति के मुख में अंदर के विकार से फोले आ जावें, फिर देखो- मधुर-भोजन भी उसे शूल लगने लगता है, यहाँ तक कि कभी-कभी शीतल नीर भी उसे कष्ट देता है, वह पुरुष किञ्चित् भी साता का वेदन नहीं कर पाता, जबकि सम्पूर्ण सुख-सामग्री सामने है, उसीप्रकार तृष्णा और ईर्ष्या के फोले जिसके अन्तःकरण में आ जाते हैं, उसे वर्तमान में प्राप्त भोग-सामग्री, राज्य-सम्पदा, चक्री-जैसे पद, शीतल चंदन के छींटे, शीतल समीर, चन्द्र की चाँदनी भी जलाती है, उस व्यक्ति को कहीं दूर-दूर तक साता नहीं दिखती। अहो! तृष्णाग्नि! तेरी शक्ति विचित्र है। तूने भिखारी से लेकर महाराजा तक को कष्ट में डाला है, अणुव्रती से महाव्रती तक को तू अपना रूप दिखा देती है। अहो! मुमुक्षुओ! जब स्वानुभव की इच्छा भी स्वानुभूति में बाधक है, तो वह मोक्ष की साधिका कैसे हो सकती है? ..साधक-भाव तो पर-भाव की भावना का अभाव है, पर-गत-तत्त्व की भावना भी परमार्थ से स्व-गत-तत्त्व में बाधक है। उन जीवों को आज चिन्तवन करना होगा, जो दिन-रात पर-पदार्थों में अपनी पर्याय को नष्ट कर रहे हैं, अति-तृष्णा में आकर करणीय-अकरणीय में कुछ भी ध्यान नहीं रखते। अहो! तृष्णा के वश होकर संसार में कितने जीवों ने अपनी गति को विकृत किया है, एक-एक इन्द्रिय की तृष्णा के वश होकर हाथी, मछली, भ्रमर, पतंगा, मृग आदि अपनी आत्म-स्वतंत्रता एवं प्राणों तक का घात करा बैठते हैं, फिर इन नरों का क्या होगा, जो-कि पाँचों ही इन्द्रियों के विषयों में तृष्णातुर हैं, न पर्व के दिन देखते, न रात-दिन देखते, यदि ये मनुष्य कम-से-कम दिन में विषय-सेवन अर्थात् दिवा-मैथुन का त्याग करें, तो पंद्रह दिन के ब्रह्मचर्य-व्रत का फल अपने-आप प्राप्त हो जावे, सत्पुरुष विवेकी दिन में परिपूर्ण-शील का पालन करते हैं, दिवा-मैथुन-सेवी को नरों में अधम समझो। तृष्णा कितनी गहरी होती है कि जीव धन एवं तन के राग में धर्म
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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