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________________ श्लो . : 17 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन 1151 -ऐसा समझना। सर्वप्रथम तो यह समझना- जब कारण-समयसार रत्नत्रय-धर्म है, कषाय कारण-समयसार का ही जब घात कर रहा है, तो वहाँ कार्य-समयसार की बात ही समाप्त हो जाती है। कारण ही तो कार्य का सहकारी है, जैसेरत्नत्रय-धर्म कार्य-समयसार का कारण है, वैसे ही कषाय संसार-भ्रमण का सहकारी कारण है। चारित्र-मोहनीय कर्मास्रव का कारण है, राग-द्वेष-अवस्था काषायिक अवस्था है, जब-तक यह रहेगी, तब-तक यथाख्यात चारित्र में प्रवेश हो ही नहीं सकता, -यह ध्रुव सिद्धान्त है। ___ अहो ज्ञानियो! बहुत सहज भाव से वात्सल्यता से युक्त होकर कह रहा हूँ कि किञ्चित् भी आपको जैन-सिद्धान्त पर आस्था है, तो यह बात परिपूर्ण सत्यार्थ समझो, कषाय के उद्रेक से स्यान्दीभूत शुद्ध संयम-स्वभाव का आनन्द नहीं आता, ग्रहण किये गये पिच्छी-कमण्डलु भी छूट जाते हैं। चारित्र-साधना में आक्रोश भाव को स्थान कहाँ? ...आक्रोशित व्यक्ति में चारित्र का स्थान कहाँ?.... यहाँ अन्वय-व्यतिरेक लगाना चाहिए। उपशम-भाव में ही संयम पलता है। अपने त्रैलोक्य-पूज्य चारित्र से भिन्न नहीं हो जाना, जिन साधनों से कषाय आती है, उन-उन निमित्तों में से स्वयं को पृथक् कर लेना, परंतु कषाय-भाव को अभिन्न मित्र नहीं बना लेना, वे मेरे तीव्र शत्रु हैं। संसार से ये आपको निकलने नहीं देंगे, यदि भवार्णव से निकलना है, तो अन्दर से कषाय की कालिमा को शीघ्र निकाल दो, आचार्य-देव उमास्वामी महाराज ने कहाकषायोदयात्तीव्र-परिणामश्चारित्रमोहस्य ।। -तत्त्वार्थसूत्र, 6/14 अर्थात् कषाय के उदय से होने वाला तीव्र आत्म-परिणाम चारित्र-मोहनीय का आस्रव है। विपाक को उदय कहते हैं, कषायों के उदय से जो आत्मा का तीव्र परिणाम होता है, वह चारित्र-मोहनीय का आस्रव जानना चाहिए। स्वयं कषाय करना, दूसरों में कषाय उत्पन्न करना, तपस्वी-जनों के चारित्र में दूषण लगाना, संक्लेश को पैदा करने वाले लिंग (वेष) और व्रत को धारण करना आदि कषाय-वेदनीय के आस्रव हैं। सत्यार्थ-धर्म का उपहास करना, दीन-मनुष्य की खिल्ली उड़ाना, कुत्सित-राग को बढ़ाने वाला हँसी-मजाक करना, बहुत बोलने एवं हँसने की आदत रखना आदि हास्यवेदनीय के आस्रव हैं। नाना-प्रकार की क्रीड़ाओं में लगे रहना, व्रत-संयम-शील
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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