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________________ श्लो. : 17 रहता? ..अपितु बहुत अच्छी तरह से रहता है, अशुभ में आनन्द लेता है, बुद्धि-पूर्वक अशुभ क्रिया का चिन्तवन करता है, पुण्य के सद्भाव में भविष्य का पापोदय दृष्टिगोचर नहीं होता, पर ध्यान दो- एक-एक बूँद के गिरने से विशाल घट भी खाली हो जाता है, उसीप्रकार प्रति-दिन प्रति - पल की अशुभ - प्रवृत्ति से पुण्य का घर भी खाली हो जाता है, चक्री-पद-धारी भी विषयाशक्ति से राज्य - पद में मरण - कर नरक - भूमि का स्पर्श करते हैं, फिर ज्ञानियो! आप तो पंचम काल के क्षीण- पुण्यवान् हो, क्यों स्व- वंचना कर रहे हो? ..पुण्य - कर्म कितना - सा कर पा रहे हो? .... पुण्य के फल को कितना भोग रहे हो? .. जितना भोग चल रहा है, उतनी साधना भी है क्या?..... अन्यथा-प्रवृत्ति करते जा रहे हो, परम समय कहता है कि सब के दिन एक-से नहीं रहते। ज्ञानी ! समय पर सँभल जाओ, पुण्य की तीव्रता में असत्य भी सत्य-रूप होता अवश्य है, पर भविष्य में फल तो असत्य का भी प्राप्त होगा । कषाय अंश अपना कार्य करेंगे ही करेंगे, एक शुभ्र आत्म- परिणामों की जो दशा है, जिसके माध्यम से तत्त्व का विशद निर्णय लिया जाता है, जिस निर्णय से सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र प्रकट होता है, उसका फल निर्वाण है, – ऐसे सत्यार्थ निर्णय को ही कषाय घात देती है, फिर आगे की अवस्था तो दुर्लभ है। निर्दोष संयम की आराधना करने की तीव्र भावना है, तो मायादि कषाय पर नियंत्रण करना अनिवार्य है । जब भी काम-क्रोधादि कषाय-भाव आते हैं, तो कषाय-लोक में प्रवेश करने से पूर्व आपको ज्ञात भी होता है कि मेरे भाव कषाय-लोक की ओर जा रहे हैं, भाव-लोक को ही सँभाल लेता, तो कषाय- लोक से बच जाता - ऐसा अनन्त जिनेन्द्र का उपदेश है, - ऐसा समझना चाहिए । कषाय से अनुरंजित चित्त तत्त्व का निर्णय नहीं कर पाता, क्या-क्या अशुभ घटित हो सकता है ? . इस विवेक को तो भूल ही जाता है, कषाय के उद्रेक में स्व-पद, स्व-धर्म, स्व-कुल, स्व-कल्याण, स्व-यश का तो नाश ही कर लेता है, कषायी अन्धे के तुल्य होता है, अन्धे पुरुष को दिखता नहीं है कि मैं कहाँ-किससे टकरा रहा हूँ, एक बार अन्धा तो हाथ के सहारे ज्ञात भी कर लेता है, परन्तु कषायी के पास ऐसा कोई साधन दृष्टिगोचर नहीं होता, जिससे वह तत्त्व-बोध को प्राप्त हो जाए। कषाय के आवेश में कार्य नष्ट होने के उपरान्त विचारता है। जब नाश हो गया, तो अब क्या ?....शोक ही अवशेष करने को है, कार्य तो कषाय ने नष्ट कर दिया, कषाय कारण-कार्य उभय-समयसार का घातक है, 150/ स्वरूप-संबोधन-परिशीलन ......
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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