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________________ श्लो. : 16 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन है; जो कुछ है, वह सब इन्द्रिय सुख है और सब कुछ निज - पुरुषार्थ समझता है, उसके अन्दर दैव की भावना पलायन ही कर जाती है, वह भूल जाता है कि बिना दैव के पुरुषार्थ कार्यकारी नहीं होता तथा यह भी सत्य है कि बिना पुरुषार्थ के दैव की भी सिद्धि नहीं होती, कार्य की सिद्धि दैव (भाग्य) और पुरुषार्थ दोनों के माध्यम से ही होती है। जब अज्ञानी के ऊपर कष्ट आता है, तो फिर भगवान्-भगवान् कहता है, जब कि भगवान् न किसी को दुःख देते, न किसी को सुख; जीव स्वयं ही स्व-कृत शुभाशुभ कर्मों से सुखी - दुःखी होता है । अन्य परमात्मा आदि के द्वारा न सुख दिया जाता है, न दुःख दिया जाता, अनुकूलता - प्रतिकूलता में पर- निमित्त तो हो सकते हैं, परन्तु पर-कर्त्ता नहीं होता । कर्त्ता तो जीव के पूर्व-कृत कर्म हैं, जो आज कर्मोदय में हैं, ऐसा मानकर समता को प्राप्त करो, पर को दोष देकर अभिनव कर्मों का आस्रव तो मत करो। पूर्व में किया उसका फल आज मिल रहा है, आज करोगे, तो फिर भविष्य में भोगना पड़ेगा । अतः आगम का आश्रय लेकर तत्त्व का चिन्तवन कर निज आत्मा का ध्यान करो । आत्म-तत्त्व शुद्ध स्वभाव से युक्त है तथा काषायिक भावों से रहित है, राग-द्वेषादि विभाव-भाव औदयिक हैं, वे कर्म के उदय से आते हैं, जब कर्म ही मेरी आत्मा का धर्म नहीं है, कर्म पौद्गलिक है, आत्मा ध्रुव चैतन्य है, चैतन्य का धर्म पुद्गल तो नहीं है, जब आत्मा पुद्गल नहीं है, तो फिर पुद्गल - कृत कार्य भी आत्मा नहीं है, अतः शुद्ध निश्चय - नय से विचार करें- राग-द्वेष आत्मा के धर्म नहीं हैं, आत्मा तो स्वभाव से ज्ञायक-भावी है, राग-द्वेष विभाव-भाव हैं, विभाव शुद्धात्म-तत्त्व - स्वरूप नहीं हैं। अहो ज्ञानियो! एक अखण्ड चैतन्य पिण्ड ज्ञान - घन आत्म-देव को जानो, उसे ही पहचानो, उसी का ध्यान करो, यही भूतार्थ स्वभाव है, शक्ति-पूर्वक पर-भावों से सत्यार्थ-स्वरूप की रक्षा करो | | । १६ ।। * हृदय में आस्था और सम्यक् श्रद्धा तो पत्थर भी भगवान् और कागज भी प्रभुवाणी / जिनवाणी..... । *** विशुद्ध-वचन /145 * बनते हैं विकारी भिखारी विकार के कारण...... इसलिए दुनिया में अधिक हैं भिखारी नहीं..... विकारी......... ।
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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