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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
श्लो. : 16
आचार्यदेव कह रहे हैं, ज्ञान-फल मात्र जानना नहीं है, पूर्वाग्रह, पक्षपात, हठधर्मिता का त्याग करना है, सभी ग्रन्थों का अध्ययन भी कर लिया, अध्यात्म-शैली भी धारण कर ली, लच्छेदार तत्त्वोपदेश भी देना प्रारंभ कर दिया, अपनी वाक्पटुता से सहस्रों सुधी-जनों को मंत्र-मुग्ध करने लगे, इन सभी के होते हुए भी स्वानुभव पर दृष्टि नहीं है, तो कुछ भी नहीं है, ऊपर कहे-गये विषय सभी बहिर-भाव हैं, मान को पुष्ट करने के साधन हैं, वे कदापि स्वात्म-रमण के उपाय नहीं हैं। स्वात्म-बोध हुए बिना जगत् का ज्ञान स्वयं के लिए हित-साध्यता का साधन नहीं है, लोक में ऐसे ज्ञानी अनन्त हुए और ज्ञान की बातें करते हुए कुमरण को प्राप्त हो गए। सत्यार्थ तो यह है कि सत्य-ज्ञानी असमाधि-पूर्वक मरण को प्राप्त नहीं होते, कुमरण का कारण श्रुत-ज्ञान नहीं है, अन्यथा ज्ञानी-योगी समाधि-मरण से रहित सिद्ध हो जाएँगे, इसलिए यहाँ यह ग्रहण करना श्रुत की आराधना में श्रुत का विपर्यास करते हों, अर्थ का अनर्थ करते हों, स्वयं के विचारों को जो आगम संज्ञा देते हैं, वे जीव नियम से कुमरण को प्राप्त होते हैं। अल्पज्ञानी बने रहना, परन्तु जिन-सूत्र के विपरीत कथन कभी नहीं करना, यदि स्वात्म-समाधि की वाञ्छा है तो; क्योंकि अल्प श्रुत-ज्ञान भी सम्यक् होने पर समाधि का साधन है। भव्य-पुरुष निज-आत्मा के वैभव का ध्यान रखता है, एक पल भी निज-स्वभाव से नहीं हटना चाहता है, प्रति-क्षण वह अपने क्षीण होते आयु-कर्म के निषेकों को ध्यान में रखता है, कब हंस इस तन-पिंजड़े से निकल जाए तथा आयु-बन्ध का अपकर्षकाल आ जाए, बन्ध-काल में जैसे परिणाम होंगे, वैसा ही भविष्य का आगामी आयु-बन्ध होगा, –यह सिद्धान्त का ध्रुव नियम है, इसे कोई टाल नहीं सकता, चाहे वह इन्द्र हो अथवा जिनेन्द्र-देव भी क्यों न हों!.... स्व-आयु का भोग जीव को स्वयं ही करना पड़ता है, एक-बार आयु-कर्म का अपकर्षण तो हो सकता है, परन्तु आयु-कर्म का संक्रमण नहीं होता, यानी जिस जीव ने सप्तम नरक-आयु का बन्ध कर लिया हो, वह आयु-कर्म की स्थिति घटा सकता है, परन्तु नरक-आयु से स्वर्ग का बन्ध नहीं होगा, यह तो जीव को भोगना ही पड़ेगा।
ज्ञानियो! कर्म-विपाक का विचार करते हुए साम्य-भाव का अभ्यास करो, चाहे सुख हो, चाहे दुःख हो; मुमुक्षुओ! निज-तत्त्व-ज्ञान का उपयोग इसी स्थिति में समझ में आता है, सामान्य समय में तो सभी लोग शान्त रहते हैं, जीवन की सत्य-परीक्षा सुख-दुःख के काल में ही होती है, सुख में फूलना नहीं, दुःख में कूलना नहीं, –यह ज्ञान की प्रवृत्ति होती है। ....पर अज्ञ प्राणी सुख के दिनों में भगवान् को भूल जाता