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________________ 142/ स्वरूप-संबोधन-परिशीलन श्लो. : 16 नहीं कर पा रहा, तो यहाँ महाव्रतों का भार कैसे धारण कर पाएगा?... यहाँ मुनि-व्रत धारण करके भी उन्मत्त, रागी, लोभी, कामी पुरुष कल्याण नहीं कर पाएँगे। नमोऽस्तु-शासन को दूषित ही करेंगे, इसलिए विवेकवन्त आचार्य भगवन्तों को विचार करके ही जिन-मुद्रा धारण कराना चाहिए, अति-बाल, अति-वृद्ध को आर्हत-लिंग प्रदान नहीं कराना चाहिए, जिन-लिंग-धारी को आगम-कुशल एवं लोक-मर्यादा में कुशल होना अनिवार्य है। आगम-कुशलता और लोक-कुशलता में प्रधान आगम-कुशलता है, परन्तु लोक-कुशल-होना भी आवश्यक है, क्योंकि आगम-बोध सर्व-साधारण को वही प्रदान कर पाता है, जो लोक-कुशल होता है, वीतराग-शासन का उद्योतन उभय-कुशलता से ही संभव है, कभी-कभी लोक-कुशलता के अभाव में लोकापवाद भी देखा जाता है, लोक-मर्यादा का ध्यान रखना साधु-पुरुषों के लिए अनिवार्य है, वह लोक-रूढ़ि भी ग्राह्य है, जिससे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की हानि न होती हो। साधक अपने चारित्र-पालन में कठोरता का व्यवहार करते हैं, परंतु प्राणि-मात्र के प्रति मृदुता का व्यवहार करते हैं, जगत् के आडम्बरों से निज संयम-भाव की रक्षा करते हैं। विकारों से निज भावों की रक्षा कालिया नाग के मुख-सदृश करते हैं; जैसेसमझदार व्यक्ति नाग के मुख में अँगुली नहीं डालता, उसीप्रकार संयमी पुरुष निज-धर्म से विहीन कार्यों में अपने-आपको नहीं ले जाता, वह त्रिकाल सावधान रहता है। शिशु की रक्षा का माँ प्रति-समय ध्यान रखती है, उसीप्रकार योगी-जन निजात्म-परिणामों की रक्षा का ध्यान रखते हैं। भावों को सँभालकर चलना यह योगियों की मुख्य साधना है, शेष साधना तो शरीर के द्वारा हो जाती है, परन्तु परिणामों की साधना के लिए शरीर को नहीं, भावों को सँभालने की आवश्यकता है। भावों को सँभालने के लिए भाला नहीं चाहिए, भावों को सँभालने के लिए परिणामों की विशुद्धि हेतु जागृति चाहिए। सत्यता तो यही है, सम्पूर्ण जैन वाङ्मय स्वाभाविकता की ओर ले जाता है, निसर्ग-भाव ध्रुव भाव है, भिन्न भावों से स्वतंत्रता का भाव लेना चाहिए। मैं अन्य से किञ्चित् भी बन्धता को प्राप्त नहीं हूँ, परमाणु-परमाणु निज स्वभाव में स्वतंत्र हैं, एक-मात्र ज्ञाता-दृष्टा-भाव से निहारना, पर-द्रव्यों को जानते-जानते निज-द्रव्य में लीन हो जाना -यही साक्षी-भाव है, विषयों में लिप्तता का नाम साक्षी-भाव नहीं, वह तो राग-भाव है, विकारी-भाव है। पर-भावों के साथ रहने वाला साक्षी-भाव की चर्चा तो कर सकता है, परन्तु साक्षी-भाव में लीन नहीं हो सकता, एक-मात्र चैतन्य-भगवान्-आत्मा में लीन हो जाना, आत्मा आत्मा को ही जाने, उसे ही
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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