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________________ श्लो. : 16 स्वरूप - संबोधन - परिशीलन 1 ज्ञानियो! ये मन तो एक पिशाच के तुल्य है, जैसे कि लोक में कहा जाता है कि किसी को पिशाच जाति का व्यन्तर सिद्ध हो जाय, तो वह उस पुरुष के प्रत्येक कार्य को शीघ्र करता है, बिना कार्य के वह शान्त नहीं रहता, एक समय की बात है कि एक पुरुष व्यन्तर को कार्य बताते - बताते थक गया, उसे कोई कार्य दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था, जो पिशाच को बता सकता, वह परेशान होकर चिन्तवन करता है कि इसे ऐसा कार्य दिया जाये, जो कभी पूर्ण न हो सके । युक्ति-पूर्वक निर्णय लेता है और व्यन्तर से कहता है कि देव जब तक आपके लिए कोई अन्य कार्य नहीं दिया जाये तब-तक इस स्तम्भ पर आरोहण-अवरोहण करो, व्यंतर ने ऐसा करना प्रारंभ कर दिया और स्वयं को व्यर्थ के भूत से सुरक्षित कर लिया । उसीप्रकार तत्त्व-ज्ञानी निजभ्रमित मन-पिशाच को श्रुत-स्कन्ध-रूपी वृक्ष पर आरोहित कर देता है और तत्त्व - विचार के सुन्दर फलों के समरस का पान करता है । चित्त को वश करने के लिए प्रशस्त चिन्तवन का होना अनिवार्य है, अनेक रोगों का कारण अशुभ- चिन्तवन है तथा अनेक रोगों का उपशामक भी चिन्तवन ही है । विषयों-कषायों का चिन्तवन जब चलता है, तब व्यक्ति का मन तो शीघ्र अस्वस्थ हो ही जाता है, मन के अस्वस्थ होते ही तन भी अस्वस्थ हो जाता है। जिन तत्त्व - ज्ञानियों को मन-वचन-काय को स्वस्थ रखना है, तो उन्हें चाहिए कि वे अपने चिन्तवन को स्वस्थ बनाने / बनाये रखने का पूर्ण पुरुषार्थ करें। मानसिक रोग सम्पूर्ण रोगों का निलय है, जिस व्यक्ति का शरीर अस्वस्थ रहता है, वह गृह कार्य अच्छा नहीं कर पाता, तब आप स्वयं विचारशील हैं, विचार करें कि जो मानसिक एवं शारीरिक पीड़ा से पीड़ित है, वह मोक्ष-मार्ग रत्नत्रय की साधना क्या करेगा? ..यह भ्रम निकाल देना चाहिए कि साधु तो कोई भी बन सकता है, चाहे अल्पधी हो, उन्मत्त हो, रोगी हो, ऋणी हो, जिसे कार्य करना पसंद नहीं, ध्यान देना- उक्त लक्षणों से युक्त कोई पुरुष तीर्थंकरों द्वारा धारण किये गये जिन - भेष को धारण करने के पात्र नहीं हैं। आचार्य भगवन्तों से प्रार्थना है, उन्मत्त पुरुष स्व-गृह वास करें, तो धर्म की हँसी नहीं होगी, पर निर्वाण-दीक्षा में उन्मत्तता दिखेगी, तब सर्वप्रथम गुरु की ही हँसी होगी, लोक में यही चर्चा होगी कि किस प्रज्ञा - विहीन शिष्य - समुदाय के लोभी गुरु ने इसे मूढ़ दिया, जो कि विचार- विहीन, चारित्र-शून्य, आपा-पर के भेद - ज्ञान का जिसके पूर्ण अभाव है, वह धर्म एवं समाज के ऊपर भार है। तीर्थंकर - मुद्रा प्रज्ञावान्, निरोगी एवं विवेक - शील को ही प्रदान करें, यह लोभ न करें कि उसका कल्याण कैसे होगा ? .... अरे भाई ! गृह-वास करते हुए दान-पूजा करना भी तो परम्परा से कल्याण का मार्ग है, जब वह वहाँ इतना कार्य /141
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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