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________________ 1281 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन श्लो. : 13 एवं 14 वृत्ति अलौकिक होती है, उन्हें लोकाचार में आप-जैसे सुधी श्रावक विद्वान् ले जाने का विचार करें, –यह उचित नहीं। परमार्थ से विचार करें कि क्या जैन-योगियों की पहचान आयतन से है? ...देव-पूजा एवं नव-देवताओं की आराधना के लिए सराग चर्या के धारक मुनिराज उपदेश कर सकते हैं। जैन-योगियों का चारित्र कैसा होता है ? आचार्य भगवन् अमृतचन्द्र स्वामी भी कहते हैं चारित्रं भवति यतः समस्तसावद्ययोगपरिहरणात्। सकलकषायविमुक्तं विशदमुदासीनमात्मरूपं तत्।। -पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लो. 39 क्योंकि वह चारित्र समस्त पापयुक्त मन, वचन, काय के योगों के त्याग से सम्पूर्ण कषायों से रहित निर्मल, पर-पदार्थों से विरक्त-रूप और आत्म-रूप स्वरूप होता है। अहो प्रज्ञ! सूत्र के एक-एक तत्त्व पर चिन्तन करो, भूतार्थ-दृष्टि से क्रिया-रूप चारित्र भी स्वभाव-भूत होने पर ही निर्दोष पलता है, जब-तक अन्तरंग निर्मलता नहीं आती, तब-तक आगमिक चर्या में विशुद्धि नहीं आती। कैसे बैठें? कैसे चलें? कैसे भोजन करें? कैसे भाषण करें? कैसे शयन करें? कैसे आसन लगायें?.... जिससे पापास्रव एवं पापबन्ध न होवे। सम्पूर्ण प्रश्नों का एक ही समाधान है कि कोई भी क्रिया यत्नपूर्वक करें, जिससे पापबंध न होवे। यह यत्न-प्रवृत्ति ही सावद्ययोग-रहितप्रवृत्ति होती है, जिसमें नवकोटि से पाँचों पापों से रहित आत्मा की प्रवृत्ति होती है। एक-एक पग, एक-एक पल सावधान रहे, वह प्रमाद-शून्य-चर्या होती है। सर्वप्रथम पाप-सूत्र यदि कोई है, तो उसका नाम 'प्रमाद' है, सम्पूर्ण पापों के साथ प्रमाद शब्द जुड़ा हुआ है, जहाँ-जहाँ प्रमाद है, वहाँ-वहाँ हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रह है। इनसे रहित अवस्था, सावद्य-रहित अवस्था, चार विकथाओं से रिक्त परिणति जिनकी है, वे पाप-शून्य त्यागी हैं। जो उक्त परिणति से युक्त हैं, वे पाप-जीव हैं, पाप-जीव कभी भी चारित्र-युक्त नहीं होता, जब वही जीव पाप-प्रकृति का त्याग करता है, तब पुण्य-जीव बनकर परमात्मा बन जाता है। जब जीव सम्पूर्ण कषाय-रहित होता है, पर-पदार्थों से निज स्वभाव को अत्यन्त भिन्न स्वीकारते हैं, वही आत्म-स्वरूप चारित्र है। आत्म-स्थ हुए बिना परमार्थ-चारित्र का प्रकटीकरण नहीं होता। मनीषियो! निश्चय से चारित्र ही धर्म है, वह चारित्र कैसा है? आचार्य भगवन् कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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