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श्लो. : 13 एवं 14
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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श्रमण नहीं। श्रमणाभास का तात्पर्य जो गुण आगम में वर्णित हैं, उन गुणों का जहाँ अभाव पाया जाय, उसे आभास कहते हैं, यानी श्रमण का जैसा-लक्षण तीर्थेश ने वर्णित किया है, विषय, कषाय और अपरिग्रह से रहित, ज्ञान-ध्यान में लीन होते हैं, जो वे सच्चे चारित्र-सम्पन्न साधु कहलाते हैं, इससे भिन्न हों, तो वे श्रमणाभास ही तो कहलाएँगे। आभास की परिभाषा भी न्याय-शास्त्रों में यही की गई हैततोऽन्यत् तदाभासम्।
-परीक्षामुखसूत्र-१/६ जैसे यहाँ पर यह सूत्र प्रमाण आदि के आभास के लिए आया है, जैसे-पहले परिच्छेद में परीक्षामुख सूत्र में आचार्य माणिक्यनन्दी स्वामी ने प्रमाणादि का स्वरूप जैसा कहा था, वैसा नहीं हो, तो उसे प्रमाणाभास कहा है अर्थात् जो प्रमाण से भिन्न है, वह प्रमाणाभास है, संख्या से भिन्न हो, पर संख्या-जैसा दिखे, वह संख्याभास है, इसीप्रकार जो श्रमण-चर्या से भिन्न हो, वह श्रमणाभास है, जैसे-कि कोई श्रमण-दीक्षा लेकर भी बाग लगाये अथवा लंगवाये, खेती कराये, गाय-भैंसादि को रखे, हिंसक जीव पाले अथवा हिंसक कृत्य, व्यापारादि में कृत-कारित-अनुमोदना को किञ्चित् भी करे, वे श्रमणाभास हैं अथवा जैन-सिद्धान्त में वर्णित आगम-पूज्यों के विपरीत कथन करे, आचरण करे, उत्पथ में लीन होकर सत्य-मार्ग का लोप करे, वे श्रमण-पने से शून्य हैं, द्रव्य-भेष हैं, द्रव्य-संयम भी नहीं है, ज्ञानियो! उक्त विषय को सिद्धान्त का प्ररूपण समझना, यहाँ पर किसी पर भी भिन्न-दृष्टि नहीं ले जाना, न किसी की आलोचना करना, आगम के सत्यार्थ स्वरूप का बोध करना तथा आभासों की अनुमोदना का भी त्याग करना चाहिए, आभास कमियों के रूप हैं। ज्ञानियो! भूतार्थ चरित्र पालन के लिए परिपूर्ण जागृति चाहिए, जैसे- एक विमान-चालक सावधान रहता है, उससे असंख्यात-गुणी सावधानी एक चारित्रवान् जीव को चाहिए पड़ती है, कब मार्ग में बाधा आ जाए, -मालूम नहीं, लोक में विषय-चोर बहुत हैं। जैन-योगियों का मार्ग जगत् के मार्गों से अत्यन्त भिन्न है, ऐसा समझना चाहिए, साथ ही उन ज्ञानी विद्वानों को भी इंगित करता हूँ, जो साधु-समाज से लौकिक कार्यों की अपेक्षा रखते हैं। विद्यालय एवं औषधालय का निर्माण, विद्वानो! आप लोग तत्त्व-ज्ञाता हो, क्या यह मार्ग दिगम्बर-साधकों का है? ....लौकिक कार्यों में साधुओं से किसी प्रकार की इच्छा रख अपनी प्रज्ञा की न्यूनता की पहचान न कराएँ, उन्हें श्रमणाभास की ओर न ले जाएँ, यह मार्ग सामाजिक, राजनैतिक कार्यों से भिन्न है, जैन-श्रमणों की