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________________ 1241 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन श्लो. : 13 एवं 14 ज्ञानियो! अव्रत-सम्यक्त्व का बहुमान तो रहना चाहिए, परन्तु सन्तुष्ट नहीं हो जाना कि मेरा तो मोक्ष-मार्ग तैयार हो चुका है, निर्वाण हो जाएगा, नहीं..., –यह भ्रम मात्र है, जब-तक संयमाचरण नहीं, तब-तक स्वरूपाचरण शुद्धोपयोग की दशा नहीं घटित होगी, इसलिए आगे भी कुछ है, -ऐसी आस्था बनाकर मोक्ष-मार्ग का पुरुषार्थ करना चाहिए, अन्यथा संतुष्टि ही रह जाएगी, पर कार्य सिद्ध नहीं होगा। जैसे-कि भवन पर आरोहण हेतु प्रथम सोपान अनिवार्य है, प्रथम सोपान पर पाद रखे बिना कार्य सिद्ध नहीं होगा, –यह सत्य है। धर्म का मूल दर्शन है, परन्तु यह भी सत्य है कि प्रथम सीढ़ी पर बैठे रहने मात्र से भी भवन में प्रवेश नहीं होता, प्रथम सोपान पर चढ़ करके ही आगे के सोपान की प्राप्ति होती है, सम्पूर्ण सोपानों के ऊपर लक्ष्य-भूत स्थान है। इसीप्रकार गुणस्थानातीत शुद्ध सिद्ध-दशा है, जो जीव चारित्र को गौण करके सर्वथा ज्ञान-दर्शन की चर्चा करते हैं, परंतु संयम से सर्वथा उदास रहते हैं, वे वीतराग-शासन के प्रति वात्सल्य का व्यवहार नहीं करते हैं, कारण दर्शन-ज्ञान-मात्र वीतरागता को प्रकट करने में समर्थ नहीं हैं, जब भी पूर्ण वीतरागता का उदय होगा, वह सम्यक्चारित्र के सद्भाव से ही होगा। ___मनीषियो! आचार्य-भगवन् पूज्यपाद स्वामी ने चारित्र की बहुत ही सुंदर परिभाषा दी है "संसारकारणनिवृत्तिं प्रत्यागूर्णस्थज्ञानवतः कर्मादाननिमित्तक्रियोपर: सम्यक् चारित्रम्।" __ -सर्वार्थसिद्धिः। हे ज्ञानी पुरुष! संसार के कारणों को दूर करने के लिए उद्यत हैं, उसके कर्मों को ग्रहण करने में निमित्त-भूत क्रिया के उपरम होने को सम्यकचारित्र कहते हैं। मनीषियो! भूतार्थ तो यह है कि संसार में सर्वप्रथम भय होना अनिवार्य है, जिस प्राणी को संसार के भ्रमण से भय होगा, वही जीव संसार के कारणों से परिचित होकर उनसे दूर होने का पुरुषार्थ करता है, यहाँ पर एक बात को विशेष ध्यान में रखना है कि जिन-वचन पर आस्था होना अनिवार्य है, संसार मोक्ष के कारणों का कथन जिनेन्द्र उपदिष्ट श्रुत में है, जिसे श्रुत पर विश्वास होगा, वही तो संसार के कारणों को सत्य स्वीकारेगा। चारित्र के पूर्व सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान होना अति आवश्यक है, साथ में वैराग्य की सत्ता होना, क्योंकि हेय-उपादेय उपेक्षा का परिचायक तो ज्ञान ही है। ऐसा ही है, अन्य नहीं, अन्यथा नहीं, इसप्रकार का निःशंकपना तो सम्यग्दर्शन ही
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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