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________________ श्लो. : 13 एवं 14 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन | 123 ये दो मोक्षमार्ग के साधन तो हैं, पर साधकतम नहीं हैं, साधकतम कोई है, तो निर्दोष चारित्र है, यही कारण है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान के बाद अन्त में सम्यक्चारित्र को रखा गया है, संसार का अन्त कराने वाला चारित्र ही है। ज्ञानियो! पूर्ण विश्वास के साथ तत्त्व-बोध को प्राप्त करो, चतुर्थ गुणस्थान में जो मोक्ष-मार्ग कहा जाता है, वह उपचार है। मुख्य के बिना उपचार नहीं होता, पर उपचार मुख्य भी नहीं होता। मुख्यार्थ को समझने के लिए ही उपचार का कथन किया जाता है। चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक्त्वाचरण है, परन्तु मनीषियो! वह सम्यक्त्वाचरण साधन का ही साधन है, साध्य-परिमाण-प्राप्ति का साक्षात्-कारण न हुआ, न कभी होगा, वह कारण- समयसार का ही कारण है, कार्य-समयसार तो ज्ञानियो! सकल-निकल परमात्मा ही है। सकल-निकल परमात्मा की उपलब्धि कराने वाला साक्षात्-कारण चारित्र है, गुणस्थानों में स्व-स्थान-संबंधी विशुद्धि अवश्य है, तद्-तद् अनुभूति भी है, जो चारित्र-आगम में वर्णित है- सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार-विशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय, यथाख्यात, वे चारित्र चतुर्थ गुणस्थान में हैं क्या? ....वे तो पंचम गुणस्थान में भी नहीं हैं। बहुत ही मृदुभाव से सत्यार्थ-तत्त्व को समझिए!..........मुझे चतुर्थ गुणस्थान से द्वेष नहीं, उपरितम गुणस्थान में राग नहीं, परम साम्यज्ञान अवश्य है, यानी 'यथा-तत्त्व' । तत्त्व की प्ररूपणा जैसी की वैसी करना चाहिए, उसी के प्रति मेरा अनुराग है और भव्य मुमुक्षु सम्यक् तत्त्व का अवलोकन करें, श्रद्धान करें, आचरण करें, -ऐसी मंगल-भावना है। तत्त्व का अन्यथा निरूपण करने से तत्त्व तो विपरीत होगा नहीं, कहने-सुनने वाले के श्रद्धान में ही विपर्यास होगा, जिसका परिणाम अनन्त-भव-भ्रमण होगा, -ऐसा समझना चाहिए। ज्ञानी! एक सहज बात समझना- जो-कि आपके अनुभव में है, आपके ग्रह-कक्ष में एक विद्युत का प्रवाह आ रहा था, पर मन्द था, विद्युत थी, लेकिन इतनी मंद थी कि मात्र एक ही बल्ब जल पा रहा था। प्रश्न यहाँ यह है कि, क्या विद्युत नहीं थी? .....उस विद्युत से कोई बड़ी मशीन क्यों नहीं चल पा रही थी, कारखाने एवं लौह-पथगामिनी (रेलगाड़ी के लिए बल्ब जलने के परिमाण-वाली विद्युत् के शक्ति-अंशों से कार्य होने वाला नहीं है, जितना विशाल कार्य होता है, उतना ही विशाल कारण होना चाहिए, कारण-सदृश ही कार्य होता है, बिना कारण के कार्य नहीं होता। उसीप्रकार चतुर्थ गुणस्थान की विशुद्धि चतुर्थ गुणस्थान की रक्षा एवं आगे के गुणस्थानों की प्राप्ति में कारण तो है, मिथ्यात्व का अभाव कराने वाली है, परन्तु मुक्ति तो साक्षात् अरहन्त-सिद्ध-अवस्था की प्राप्ति चारित्र के शक्ति-अंशों से ही संभव है।
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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