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________________ 120/ स्वरूप-संबोधन-परिशीलन श्लो. : 12 और उपेक्षा इत्यादि ये तीनों प्रमाण से कथञ्चित् भिन्न फल हैं, सर्वथा भिन्न नहीं। उनमें सर्वथा भेद मानने पर यह इस प्रमाण का फल ऐसा व्यपदेश कैसे होगा और स्पष्ट करते हैं सूत्रकार परीक्षामुखसूत्र मेंयः प्रमिमीते एव निवृत्ताज्ञानो जहात्यादत्ते उपेक्षते चेति प्रतीतेः ।। -परीक्षामुख, सूत्र 5/3 अर्थात् जो जानता है, वही अज्ञान-रहित होता है एवं हेय को छोड़ता है, उपादेय को ग्रहण करता है, उपेक्षणीय पदार्थ में मध्यस्थ होता है; इसप्रकार सभी को प्रतिभासित होता है। जो प्रमाता जानता है अर्थात् स्वयं पर-ग्रहण-रूप परिणाम से परिणमता है, उसी का अज्ञान दूर होता है। व्यामोह-संशयादि से रहित होता है, वही प्रमाता पुरुष अपने इच्छित प्रयोजन को सिद्ध नहीं करने वाले पदार्थ को छोड़ देता है और प्रयोजन को सिद्ध करने वाले को ग्रहण करता है, जो न प्रयोजन-भूत है और न असाधक है अर्थात् उपेक्षणीय है, उस पदार्थ की उपेक्षा कर देता है। इसप्रकार से प्रमाता की प्रक्रिया प्रतीति में आती है, इसलिए प्रमाण से प्रमाण का फल कथंचित् भिन्न और कथञ्चित् अभिन्न होता है। शंका- इसतरह प्रमाण के विषय में मानेंगे, तो प्रमाता, प्रमाण और फल इनमें कुछ भी भेद नहीं रहेगा, फिर यह जगत्प्रसिद्ध प्रमाता आदि का व्यवहार समाप्त हो जाएगा। समाधान- यह शंका निर्मूल है, प्रमाता आदि में लक्षण भिन्न-भिन्न होने से कथञ्चित् भेद माना है, पदार्थ के जानने में साधकतम करण-रूप से परिणमित होता हुआ आत्मा का जो स्वरूप है, उसे प्रमाण कहते हैं। जो कि निर्व्यापार-रूप है तथा जो व्यापार है, जानन-क्रिया है, वह फल है। स्वतंत्र रूप से जानना क्रिया में प्रवृत्त हुआ आत्मा प्रमाता है, इस तरह प्रमाण आदि में कथञ्चित् भेद माना गया है। अभिप्राय यह है कि आत्मा प्रमाता कहलाता है, जो कर्त्ता है, आत्मा में ज्ञान है, वह प्रमाण है और जानना फल है। कभी-कभी प्रमाता और प्रमाण इनको भिन्न न करके प्रमाता जानता है, -ऐसा भी कहते हैं, क्योंकि प्रमाता-आत्मा और प्रमाण-ज्ञान -ये दोनों एक ही द्रव्य हैं, केवल संज्ञा लक्षणादि की अपेक्षा भेद है। इसप्रकार कर्त्ता और करण को भेद करके तथा न करके कथन करते हैं। "प्रमाता घट जानाति" यहाँ पर कर्ता, करण दोनों को पृथक् नहीं किया- "प्रमाता प्रमाणे न घटं जानाति" इसतरह
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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