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________________ श्लो. : 12 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन 1119 घट-विषयक जो अज्ञान था, वह दूर हो गया, तब वैसी स्थिति में घट-विषयक जो यथार्थ-ज्ञान था, वह अपने-आप प्रस्फुटित हो जाता है अर्थात् दिखने लगता है। यही अज्ञान की निवृत्ति है और यह अज्ञान-निवृत्ति प्रमाण का साक्षात् फल है। पदार्थ तीन प्रकार के होते हैं- हेय, उपादेय और उपेक्षणीय । जब किसी पदार्थ के विषय में किसी ने जाना कि सर्प है, तो वह व्यक्ति सर्प के पास नहीं जाएगा, क्योंकि सर्प हेय है। यहाँ सर्प का हान (त्याग) कर देना प्रमाण का फल है। जब किसी ने प्रमाण के द्वारा जाना कि यह स्वर्ण है, तो वह उसके पास जाकर उसका उपादान (ग्रहण) कर लेगा, यहाँ स्वर्ण का उपादान कर लेना प्रमाण का फल है। जब मार्ग में जाते हुए किसी व्यक्ति के पैर के स्पर्श से ऐसा ज्ञान होता है कि तृण है, तब वह तृण की उपेक्षा कर देता है, क्योंकि तृण न हेय है और न उपादेय है, किन्तु उपेक्षणीय है, यहाँ तृण में उपेक्षा-बुद्धि होना प्रमाण का फल है। इसप्रकार हम को प्रमाण के द्वारा अनिष्ट-पदार्थ में हान-बुद्धि होती है, इष्ट-पदार्थ में उपादान-बुद्धि होती है और उपेक्षणीय-पदार्थ में उपेक्षा-बुद्धि होती है। अतः हान, उपादान और उपेक्षा इत्यादि ये तीनों प्रमाण के परम्परा से फल हैं। प्रमाण के द्वारा पहले पदार्थ का ज्ञान होता है और इसके बाद हान आदि होते हैं, इसलिए अज्ञान-निवृत्ति प्रमाण का साक्षात्-फल है और हान आदि तीन परम्परा-फल हैं। यहाँ पर यह जान लेना आवश्यक है कि प्रमाण का फल प्रमाण से अभिन्न होता है या भिन्न? .....बौद्ध मानते हैं कि प्रमाण का फल प्रमाण से अभिन्न है और यौग (नैयायिक एवं वैशेषिक) मानते हैं कि प्रमाण का फल प्रमाण से भिन्न है। इस शंका का निराकरण आगे के सूत्र में किया गया है प्रमाणादभिन्नं। . -परीक्षामुखसूत्र, 5/2 प्रमाण का फल प्रमाण से कथञ्चित् अभिन्न है और कथञ्चित् भिन्न है। प्रमाण से प्रमाण का फल न तो सर्वथा अभिन्न है और न सर्वथा भिन्न है। आचार्य-प्रवर प्रभाचन्द स्वामी के अनुसार अज्ञान-निवृत्ति प्रमाण से अभिन्न रहती है, इसलिए वह प्रमाण से अभिन्न-फल है तथा हान, उपादान और उपेक्षा इत्यादि ये तीन प्रमाण से भिन्न-फल हैं। यथार्थ में अज्ञान-निवृत्ति प्रमाण से कथञ्चित् अभिन्न-फल है। प्रमाण और अज्ञान निवृत्ति में सर्वथा अभेद मानने पर वे दोनों एक हो जाएँगे और तब यह प्रमाण है और यह फल है -ऐसा व्यवहार नहीं बन सकेगा। इसीप्रकार हान, उपादान
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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