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________________ 1041 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन श्लो. : 11 जीव और अजीव दोनों मिलकर सब नौ तत्त्व पदार्थ हैं। इनको बाह्य दृष्टि से देखा जाय, तब जीव पुद्गल की अनादि-बन्ध पर्याय को प्राप्त करके उनका एकत्व से अनुभव करने पर तो ये नौ भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं तथा एक जीव-द्रव्य के ही स्वभाव को लेकर अनुभव किये गये अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। जीव के एकाकार स्वरूप में ये नहीं हैं, इसलिए इन तत्त्वों में भूतार्थ नय से जीव एक-रूप ही प्रकाशमान है। उसी तरह अन्तर्दृष्टि से देखा जाय, तब ज्ञायक-भाव जीव है और जीव के विकार का कारण अजीव है- पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष जिसका लक्षण है, ऐसा केवल जीव का विकार नहीं है, पुण्य आदि ये नव-तत्त्व हैं, वे जीव के स्वभाव को छोड़कर स्व-पर-निमित्तक एक द्रव्य पर्याय रूप से अनुभव किये गए, तो भूतार्थ हैं तथा वे सब-काल में चलायमान नहीं होते। एक जीव द्रव्य के स्वभाव को अनुभव करने पर ये अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं, इसलिए इन नौ तत्त्वों में भूतार्थ नय से देखा जाय, तब जीव तो एक-रूप ही प्रकाशमान है। ऐसे यह जीव-तत्त्व एकत्व-रूप से प्रकट प्रकाशमान हुआ शुद्ध-नय से अनुभव किया गया है। __ यह अनुभव ही आत्म-ख्याति है, -आत्मा का ही प्रकाश है, जो आत्म-ख्याति है, वही सम्यग्दर्शन है। इस प्रकार यह-सब कथन निर्दोष है, बाधा-रहित है। ज्ञानियो! तत्त्व-प्ररूपण की भाषाएँ अनेक हो सकती हैं, परन्तु तत्त्व के स्वरूप का विपर्यास नहीं होना चाहिए, आगम की रक्षा करते हुए चाहे जिस भाषा में तत्त्व की प्ररूपणा करो, भाषा-शैली के परिवर्तन से सिद्धान्त में परिवर्तन नहीं होता, परन्तु भावों के विपर्यास से जो कथन करता है, उससे सिद्धान्त में परिवर्तन हो जाता है, यानि विपरीत कथन हो जाता है, परन्तु फिर-भी ध्यान रखना- तत्त्व के तत्त्व-भाव में परिवर्तन तो नहीं होता, वह तो त्रैकालिक है........ फिर विपरीत कथन से भयभीत क्यों होते हो, -ऐसा प्रश्न मन में आना सहज है, उसका समाधान यहाँ पर यह समझना कि तत्त्व तो अपने तत्त्व-भाव में ध्रुव है ही, उसमें कोई प्रश्न नहीं है, भय इस बात का है कि विपरीत प्ररूपणाएँ ग्रन्थों में तथा विद्वानों में आ गईं, तो उन अर्वाचीन प्ररूपणाओं को सुनने वाले तत्त्व पर विपरीत रूप से श्रद्धान कर लेंगे, जिससे उनके सम्यक्त्व गुण की हानि होगी। ध्रुव सत्य तो यह है कि भगवत्-देशना पर की आस्था के अभाव में अपनी सत्यता का अभाव तो नहीं कर पाएगी, पर-तत्त्व के प्रति विपरीत-आस्था जीव-भव-भ्रमण का कारण अवश्य बन जाती है। बिना विशिष्ट तपस्या किये आपको कर्म-निर्जरा, संवर एवं पुण्य-आस्रव का साधन मिल रहा है। ज्ञानी! ध्यान रखना- शुभ फल-रूप
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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