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________________ 72/ स्वरूप-संबोधन-परिशीलन श्लो. : 6 प्रत्येक तत्त्व-ज्ञानी को सर्वप्रथम अपने सम्यक्त्व की रक्षा करनी चाहिए। अन्य कार्य गौणता में रखने चाहिए, शेष धर्मों को गौण-वृत्ति में लाना चाहिए, परन्तु अभाव नहीं करना चाहिए। सम्यक्त्व-आराधना, ज्ञान-साधना, चारित्र का पालन –यही मुमुक्षु का धर्म है। एक-स्वभावी आत्मा अनेक-स्वभावी भी है, –यह परम सत्य है। आचार्य देवसेन स्वामी ने उक्त उभय-धर्मों के लिए दो सूत्रों का निबन्धन - किया हैस्वभावानामेकाधारत्वादेकस्वभावः ।। -आलापपद्धतिः, सूत्र 110 अर्थात् सम्पूर्ण स्वभावों का एक आधार होने से एक-स्वभाव है। एकस्याप्यनेक-स्वभावोपलम्भादनेक-स्वभावः ।। -आलापपद्धतिः, सूत्र 111 अर्थात् एक ही द्रव्य नाना गुण-पर्यायों और स्वभावों का आधार है, यद्यपि आधार एक है, किन्तु आधेय अनेक हैं, अतः आधेय की अपेक्षा से अथवा विशेषों की अपेक्षा से द्रव्य अनेक-स्वभावी हैं। इस कारिका में आचार्य भट्ट श्री अकलंक स्वामी आत्मा की प्रधानता से कथन कर रहे हैं कि आत्मा किसी अपेक्षा से एक-स्वभावी है, तो किसी अन्य अपेक्षा से अनेक-स्वभावी है, एक ही आत्म-द्रव्य में दो विरुद्ध धर्मों की सत्ता त्रैकालिक है। आधार अनन्त-गुणों का एक होने से एक-स्वभाव-धर्म है। एक आधार पर अनेक आधेय विराजते हैं, इस कारण अनेक-स्वभावी भी है। जैसे-कि शरीर की अखण्डता को जब हम देखते हैं, तब नाना अवयवों का समूह ही शरीर-रूप है, अन्य कोई भिन्न अवस्था तो शरीर है नहीं। ऐसा तो नहीं है कि शरीर में अंग भिन्न स्थान पर हों, उपांग भिन्न स्थान पर हों; जहाँ शरीर है, वहाँ ही अंग-उपांग एवं इन्द्रियाँ आदि हैं। शरीर मात्र की उच्चारणा एक-स्वभाव की द्योतक है, क्योंकि वह अखण्ड को लिये हुए है। वहीं पर जब हम यह देखते हैं कि यह मेरा कान है, यह मेरी आँख है, रसना है, घ्राण है, स्पर्शन है, इत्यादि एक-एक अंग को लेकर जब देखते हैं, तब वह शरीर-रूप एक द्रव्य अंग-अंग की दृष्टि से अनेक रूप भी है, तत्त्व-ज्ञानी को सर्वत्र स्याद्वाद् / अनेकान्त सिद्धान्त का प्रयोग करना चाहिए।
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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