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________________ श्लो. : 6 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन 171 कर देना परम-आवश्यक है, जिससे स्व-मत की पुष्टि दृढ़ता को प्राप्त होती है, जैनन्याय के उद्भट विद्वान् ने भी 'श्लोकवार्तिक' जैसे महान् तार्किक ग्रन्थ में उक्त बात की पुष्टि की हैवादिनोभयं कर्तव्यं स्व-पर-पक्ष-साधन-दूषणमिति न्यायानुसरणात्। __- तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक / पृ.207/खण्ड 4/श्लोक 166/ टीका विधि-निषेध से सम्यक्त्व का प्ररूपण करना चाहिए, वादी को स्व-पक्ष-साधन और पर-पक्ष-निदूषण -ये दोनों कार्य करने चाहिए। किसी के द्वारा चाहे एकान्त से एक-स्वभावी कहा जाए, चाहे अनेक-स्वभावी, परंतु द्रव्य अपने एकानेक-स्वभाव को बदल नहीं देगा, वह तो त्रैकालिक एकानेक-स्वभावी ही रहेगा। मुमुक्षुओ! नेत्र-रोगी को दो चन्द्र-दर्शन एक-साथ आकाश में होने लगें, तो क्या वास्तव में दो चंद्र युगपद् आकाश में हैं?... यह तो रोग है अथवा रिष्ट है, जिसे सहज ही दो चन्द्र दिखें, ज्ञानियो! वह पुरुष अल्प-समय में ही मरण को प्राप्त होगा। यह मृत्यु की सूचना तो हो सकती है, परन्तु एक-साथ दो चन्द्रों का उदय नहीं होता, उसी प्रकार जिसकी सम्यक् ज्योति बुझने वाली है अथवा बुझ चुकी है, उसे ही तत्त्व पर विपर्यास होता है। किसी के द्वारा रस्सी में सर्प की कल्पना करने से रस्सी सर्प नहीं हो जाती, –ऐसा जानना चाहिए। किसी भी अज्ञ पुरुष द्वारा वस्तु की संज्ञा, लक्षण व प्रयोजन के बदल देने से वस्तु का स्वभाव नहीं बदल सकता, वह कारण-कार्य-विपर्यास ही कर सकता है, परन्तु सत्स्वभाव को किञ्चित् भी परिवर्तित नहीं कर सकता। जैसे- लोक में पत्थर को भी देव कहा जाता है, देवत्व की स्थापना ही है, परन्तु पाषाण में देवगति-जैसी क्रिया नहीं देखी जाती, अथवा यों कहें कि नाटक में अनेक पात्र विभिन्न नायकों की भूमिकाएँ निभाते हैं, हाव-भाव प्रकट करते हैं, परन्तु ज्ञानियो ! नाटक-रूप हैं, तत्पात्र-जन्य-अनुभूति उन्हें नहीं हो पाती। इसीप्रकार द्रव्य का जैसा धर्म है, वैसा ही रहता है, अन्य किसी के द्वारा विपरीत जान लेने से पदार्थ विपरीत नहीं होता। दूंठ में पुरुष का ज्ञान करने वाले का विभ्रम ही है। दूँठ पुरुष नहीं होता; बस, इतना ही स्पष्ट समझना कि तत्त्व से विपरीत कथन करने के कारण तत्त्व तो विपरीत नहीं हो सकता है, पर विपरीत कथन करने वाले तथा आस्था करने वाले का सम्यक्त्व अवश्य विपरीतता को प्राप्त होता है, यानी-कि तत्त्व को उल्टा समझने वाला तथा कहने वाला मिथ्यात्व को अवश्य प्राप्त होता है।
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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