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________________ 541 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन श्लो . : 4 पर्याय में एकत्व है, कैसे ?... अभिन्नता पायी जाने से, इससे गुण-गुणी के एकत्व रूप की गई पूर्व-प्रतिज्ञा का निराकरण हो जाता है। परिणाम-कार्य का अन्यथा-रूप होना, अतीत में जो वचन-गोचर है, उसका विशेष से अर्थात् परिणाम-विशेष से उसमें एकता है। जिससे शक्ति है, वह शक्तिवाला है, द्रव्य है, जो परिणामी है, प्रतिनियत कार्य को सम्पन्न करने की सामर्थ्य-विशेष शक्ति है, जैसे- घी आदि का चिकना होना, तृप्ति होना और वृद्धि करना आदि शक्तिमान् है और शक्ति का भाव होने से द्रव्य और गुण में एकता है, -ऐसा समझना, पर विवक्षा से एकता स्वीकारना, न-कि सर्वथा; जो कार्य-कारण को, गुण-गुणी को सर्वथा एकत्व-रूप समझते हैं, वे वस्तु-तत्त्व के सत्यार्थ-निर्णय तक नहीं पहुँचते। भो ज्ञानी! स्व-प्रज्ञा का किञ्चित् तो प्रयोग करो। यदि गुण-गुणी एक ही हैं, तो दो में से आपके ही अनुसार एक का अभाव स्वीकारना होगा, जहाँ गुण का अभाव हुआ कि गुणी का भी अभाव होगा, जहाँ गुणी का अभाव होगा, वहाँ गुण का भी अभाव हो जाएगा। पता चला कि अवस्तु का प्रसंग आ गया, इसलिए तत्त्व-प्ररूपणा जो भी की जाए, वह विवेक-पूर्वक की जाए। गुण-गुणी कभी ऐसे पृथक् नहीं, जैसे-कि दण्डी के हाथ में डण्डा। गुण-गुणी का सम्बंध घृत में चिक्कण के समान है। शब्द में, संज्ञा में और प्रयोजन में घृत और चिकनेपन में भेद है, पर क्या प्रदेश से भिन्नत्व है?...... प्रदेश भिन्नत्व नहीं है, प्रदेश से तो अभिन्नत्व ही है, जहाँ घृत द्रव्य है, वहीं चिक्कण गुण भी है, जैसा कि आ. श्री समन्तभद्रस्वामी ने कहा है संज्ञा-संख्या-विशेषाच्च स्वलक्षणविशेषतः। प्रयोजनादि भेदाच्च, तन्नानात्वं न सर्वथा।। -आप्तमीमांसा, श्लो. 72 नाम और संख्या की विशेषता से द्रव्य और गुण में भेद दिखायी देता है, नाम का भेद जैसे-ऊढ़ा और बधू । यहाँ ऊढ़ा गुण का नाम है और वधू गुणी का नाम है। प्रमदा-कामिनी में प्रमाद गुण का नाम है, कामिनी गुणी का नाम है, क्रोधवती भामा में क्रोधवती गुण का नाम है और भामा गुणी का नाम है। गुण दो, तीन, चार कितने ही हो सकते हैं, पर गुणी एक ही होता है। एक गुणी के आश्रय में कई गुण हो सकते हैं। अपना असाधारण लक्षण है, जिसकी विशेषता उससे भी द्रव्य-गुणी और गुण में भिन्नता है तथा द्रव्य से दूसरे प्रयोजन की सिद्धि होती है और पर्याय से दूसरे प्रयोजन की, वृक्ष, पत्र एवं पुष्प के समान। जैन-दर्शन में जो आत्मा को ज्ञान से
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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