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________________ श्लो . : 4 स्वरूप-संबोधन-परिशीलन 153 जब स्वयं का कल्याण करने का समय आया, तब वीतराग-जिन दिगम्बर-मुद्रा, स्याद्वाद् अनेकान्त का आलम्बन लेना ही पड़ा, और तभी भगवान् महावीर बन पाये। मनीषियो! भ्रम में नहीं पड़ जाना, कितने भी विपरीत-मार्ग की स्थापना लोग कर लें; यह भी ध्यान रखना- स्थापना वे ही कर पाते हैं, जो पुण्य के द्रव्य से युक्त होते हैं, पुण्य क्षीण हो, उसका कोई पन्थ नहीं बन पाता, एक पर्याय के पुण्य को तो वे नष्ट कर ही गये, पर वे अनेक अनुयायियों को संसार में भ्रमित भी कर गये। मेरा यहाँ सामान्य जीवों को इंगित करना है; ध्यान दो- जैसे-कि लोक में वर्तमान में देखा जाता है कि जो राजनेता हैं, वे स्वयं अपनी सुरक्षा तो रखते हैं, पर व्यर्थ में सामान्य नागरिक कष्ट व पीड़ा को सहन करते हैं। व्यर्थ के आतंक में कितने नेता मरण को प्राप्त हुए और कितनी जनता?..... स्वयं निर्णय कीजिये- इसी प्रकार पन्थ-सम्प्रदायों के जनक स्वयं पुण्यवान् होते हैं, अहंकार के वश हो सामान्य जीवों को विपरीत, उत्पथ-दर्शक कु-सूत्र प्रदान कर जाते हैं और स्वयं अन्य पर्याय में पहुंचकर सम्यग्-आराधना करके भगवान् बन गए; देखा, भगवान् महावीर स्वामी को ही अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं थी। अतः वीतराग-मार्ग से हटकर जो भी उपदेश करे, उनकी बातों में नहीं आना, यदि स्व-कल्याण की इच्छा है, तो पुनः मूल पर आते हैं। ज्ञान से भिन्न है आत्मा, ज्ञान से अभिन्न है आत्मा, -इस विषय को अब स्याद्वाद्-सिद्धान्त से प्रतिपादित करते हैं। यदि आत्मा से ज्ञान में भिन्नत्व-भाव स्वीकार नहीं करते हैं, तो गुण व गुणी एकत्व को प्राप्त हो जाएगा और आत्म-भूत लक्षण का अभाव हो जाएगा। गुण स्वभाव होता है। गुणी स्वभावी होता है। गुण के द्वारा ही गुणी की पहचान होती है। अतः संज्ञा, लक्षण व प्रयोजन की अपेक्षा दोनों में भिन्नत्व-भाव है और प्रदेशत्व की अपेक्षा से अभिन्नत्व-भाव है, इसप्रकार समझना। गुण-गुणी में अयुत-भाव है, युत-भाव नहीं है, अत्यन्त भिन्न-भाव ज्ञान और आत्मा में नहीं है; कहा भी है द्रव्यपर्याययोरैक्यं तयोरव्यतिरेकतः। परिणाम-विशेषाच्च शक्तिमच्छक्तिभावतः।। -आप्तमीमांसा, श्लो. 71 द्रव्य और पर्याय इन दोनों में परिणाम के विशेष शक्ति-अशक्ति भाव से एकता है, इन दोनों की अलग-अलग उपलब्धि नहीं होती। कारण-गुणी-सामान्य वस्तु/द्रव्य कहा जाता है। कार्य-गुण-विशेष पर्याय कहा जाता है, उन दोनों में अर्थात् द्रव्य और
SR No.032433
Book TitleSwarup Sambodhan Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhasagar Acharya and Others
PublisherMahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
Publication Year2009
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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