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________________ शान्तसुधारस गीतिका ९ : सारंगरागेण गीयते विभावय विनय! तपोमहिमानं, बहुभवसञ्चितदुष्कृतममुना, लभते लघु लघिमानम्॥१॥ हे विनय! तू तप की महिमा का अनुचिन्तन कर। उससे अनेक जन्मों में संचित पाप शीघ्र कृश हो जाते हैं। याति घनाऽपि घनाघनपटली, खरपवनेन विरामम्। भजति तथा तपसा दुरिताली, क्षणभङ्गुरपरिणामम्॥२॥ जिस प्रकार प्रचंड वायु के द्वारा सघन बादलों की श्रेणियां भी छिन्नभिन्न हो जाती हैं, उसी प्रकार तप के द्वारा पापश्रेणी क्षणभर में विलीन हो जाती है। वाञ्छितमाकर्षति दूरादपि, रिपुमपि सृजति' वयस्यम्। तप इदमाश्रय निर्मलभावादागमपरमरहस्यम्॥३॥ यह तप अभीप्सित पदार्थों को दर से भी आकर्षित कर लेता है, शत्रु को भी मित्र बना लेता है, यह आगम का परम रहस्य है, इसका तू निर्मलभाव से आसेवन कर। अनशनमूनोदरतां वृत्तिह्रासं रसपरिहारम्। भज सांलीन्यं कायक्लेशं, तप इति बाह्यमुदारम्॥४॥ अनशन, ऊनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसपरिहार, संलीनता और कायक्लेश' ये तप के बाह्य अंग हैं। इस उदार (विशाल) तप का तू आसेवन कर। प्रायश्चित्तं वैयावृत्त्यं, स्वाध्यायं विनयं च। कायोत्सर्ग शुद्धं ध्यानमाभ्यन्तरमिदमञ्च॥५॥ प्रायश्चित्त, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, विनय, कायोत्सर्ग और शुभध्यान ये तप के आभ्यन्तर अंग हैं। इस तप का तू अनुशीलन कर। शमयति तापं गमयति पापं, रमयति मानसहंसम्। हरति विमोहं दुरारोह, तप इति विगताशंसम्॥६॥ १. व्रजति (?)। २. कायोत्सर्ग आदि आसन। ३. इत्यपि पाठः-शुभ....। ४. धर्मध्यान और शुक्लध्यान। ५. इत्यपि पाठः-दूरारोहम्।
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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