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________________ २४ शान्तसुधारस जिस प्रकार मनुष्य मदिरा में उन्मत्त होकर अपने स्वभाव को भूल जाता है और नाना प्रकार की चेष्टाएं करता है, उसी प्रकार परपदार्थ के संयोग से मनुष्य इस संसार में गिरता है, लुठता है और उबासियां लेता है, यह तू देख। पश्य काञ्चनमितरपुद्गलमिलितमञ्चति कां दशाम्। केवलस्य तु तस्य रूपं, विदितमेव भवादृशाम्॥५॥ तू देख, विजातीय तत्त्वों से मिश्रित सुवर्ण किस दशा को प्राप्त होता है! (वह विरूप-सा लगने लग जाता है।) उसका शुद्ध रूप कैसा होता है, यह आप जानते ही हैं। एवमात्मनि कर्मवशतो, भवति रूपमनेकधा। कर्ममलरहिते तु भगवति, भासते काञ्चनविधा॥६॥ इसी प्रकार आत्मा कर्म के अधीन होकर अनेक प्रकार के रूपों को धारण करती है। कर्ममल से रहित ज्ञानमय आत्मा सुवर्ण की भांति प्रभास्वर (केवल चैतन्यमय) बन जाती है। ज्ञानदर्शनचरणपर्यवपरिवृतः परमेश्वरः। एक एवाऽनुभवसदने, स रमतामविनश्वरः॥७॥ ज्ञान, दर्शन और चारित्र की इस त्रिवेणी पर्यव से युक्त वह परमेश्वर, अविनाशी और अकेली (विशुद्ध या चैतन्यमय) आत्मा मेरे अनुभव के मंदिर में रमण करे। रुचिरसमताऽमृतरसं क्षणमुदितमास्वादय मुदा। विनय! विषयाऽतीतसुखरसरतिरुदञ्चतु ते सदा॥८॥ हे विनय! तू क्षणभर के लिए प्रकट उत्तम समतारूपी अमृतरस का उल्लास के साथ पान कर। विषय से अतीत सुख के रस से होने वाला तेरा आनन्द सदा बढता रहे।
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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