SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकत्व भावना २३ आवरण अथवा कल्पना को तू अब दूर हटा, जिससे आत्मचिन्तनरूपी चन्दनवृक्ष का स्पर्श कर आने वाली वायु की ऊर्मियों से चूने वाले रस क्षणभर के लिए मुझे छू जाएं। ५. एकतां समतोपेतामेनामात्मन्! विभावय। लभस्व परमानन्दसम्पदं नमिराजवत्।। हे आत्मन्! तू समतायुक्त इस एकत्व अनुप्रेक्षा का अनुचिन्तन कर, जिससे तू नमि राजा की भांति परम आनंद की संपत्ति को उपलब्ध हो सके। गीतिका ४ : परजीयारागेण गीयते विनय! चिन्तय वस्तुतत्त्वं, जगति निजमिह कस्य किम्? भवति मतिरिति यस्य हृदये, दुरितमुदयति तस्य किम्?॥१॥ हे विनय! इस संसार में किसके कौन-सी वस्तु अपनी है, इस वास्तविक सत्य का तू चिन्तन कर। जिसके अन्तःकरण में ऐसी मति उत्पन्न हो जाती है, क्या उस व्यक्ति के पाप उदित होते हैं? एक उत्पद्यते तनुमानेक एव विपद्यते। एक एव हि कर्म चिनुते, सैककः फलमश्नुते॥२॥ मनुष्य अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही कर्मों का संचय करता है और अकेला ही वह उनका फल भोगता है। यस्य यावान् परपरिग्रह-विविधममतावीवधः। जलधिविनिहितपोतयुक्त्या, पतति तावदसावधः॥३॥ जो परवस्तु के परिग्रह में होने वाली नाना प्रकार की ममताओं का जितना भार ढोता है वह व्यक्ति समुद्र में उतारी हुई नौका की भांति उतना ही नीचे चला जाता है जलपोत में जितना भार होता है उतना ही वह पानी में डूब जाता है। स्वस्वभावं मद्यमदितो', भुवि विलुप्य विचेष्टते। दृश्यतां परभावघटनात्, पतति लुठति विजृम्भते॥४॥ १. अनुष्टुप्। २. मदी-हर्षग्लेपनयोः।
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy