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________________ आस्रव-संवर भावना ७-८. जे आसवा ते परिस्सवा राजगृह की पुण्यस्थली में भगवान महावीर का समवसरण। प्रभुदर्शन के लिए उमड़ती हुई जनता की भीड़। नगर की गलियां और राजपथ जनसंकुल होते जा रहे थे। जिसने भी भगवान् के आगमन का संवाद सुना, वह अपनी उत्सुकता नहीं रोक सका और भगवान् का सान्निध्य प्राप्त करने के लिए चल पड़ा। महाराज श्रेणिक भी नगर के सम्भ्रान्त लोगों के साथ परिवारिकजनों से परिवेष्टित होकर प्रभुवन्दन के लिए चले जा रहे थे। राजपथ के एक छोर पर खड़े एक महामुनि सहस्र-सहस्र दर्शकों के लिए जिज्ञासा और कुतूहल का विषय बने हुए थे। एक पांव के सहारे ऊर्ध्वबाहु में स्थित उनकी विशिष्ट ध्यानमुद्रा लोगों को बरबस अपनी ओर खींच रही थी। उन्हें देखकर चलते हुए कदम सहसा क्षणभर के लिए रुकते और पुनः भगवान के समवसरण की ओर बढ़ जाते। वे राजर्षि पोतनपुर के महाराज प्रसन्नचन्द्र थे। भगवान् महावीर से संबुद्ध होकर उन्होंने दीक्षा अगीकार की और अपने राज्य का उत्तरदायित्व नाबालिग पुत्र को सौंपकर स्वयं उस भार से मुक्त हो गए। वे नहीं चाहते थे कि पुत्र के युवा होने तक राज्य व्यवस्था में ही लिप्त रहा जाए, इसलिए उन्होंने यह मार्ग चुना। भगवान् की अनुज्ञा से आज वे समवसरण के समीप ही ध्यान के विशेष प्रयोग कर रहे थे। उधर से आने वाला व्यक्ति उनकी ध्यान-साधना को देखकर सहज ही प्रणत हो जाता। कोई उन्हें अपनी मौनभावाभिव्यक्ति के द्वारा वर्धापित करता तो कोई अपनी वाचिक स्तवना से उनका गुणगान करता। कोई अपने कायसंस्पर्श से उनका स्पर्श करना चाहता तो कोई मस्तक झुकाकर दूर से ही वन्दना करता। हजारों-हजारों लोग उनके सामने से चले जा रहे थे, फिर भी उनकी साधना में न कोई व्यवधान और न कोई बाधा। प्रत्युत उनकी ध्यान-साधना में वही तल्लीनता और एकाग्रता
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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