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________________ आत्मा की आराधना १२३ क्षणभंगुरता और अशाश्वता को समझ चुका था। एड़ी से चोटी तक चढ़ा हुआ सारा अहंकार अन्य की शरण जाने को अगल-बगल झांक रहा था। ममकार की सघनमूर्छा सत्यसंजीवनी को पाकर टूट चुकी थी। सम्राट का टूटा-टूटा दिल सत्य और परमार्थ को खोज रहा था। एकाएक उनकी अन्तश्चेतना बोल उठी-अरे! जिस शरीर को अच्छे-अच्छे पकवान खिलाकर हृष्ट-पुष्ट और मांसल बनाया, जिसको नित्य-प्रतिदिन अच्छी-अच्छी पोशाकों तथा अलंकारों से सजाया तथा जिसको रगड़-रगड़कर तैल-इत्र आदि सुवासित द्रव्यों से रिझाया, वह भी साथ छोड़ देगा, कभी नहीं सोचा। जिसको आज तक मैंने अपना माना वह भी आज पराया बन गया। क्यों मैंने इस पौद्गलिक और अशुचिमय शरीर को इतना मूल्य दिया? क्या मैं बाह्य सौन्दर्य में उलझकर त्वचा, मांस और शोणित को ही देखता रहा? क्या कभी इसके भीतर छिपे हए सारतत्त्व का अनुचिन्तन किया? नहीं, नहीं, आज तक मेरा सारा चिन्तन विपरीत दिशा में ही प्रवाहित रहा। इस प्रकार सम्राट् सनत्कुमार शरीर की अशुचि का चिन्तन करते हए उसके भीतर छिपे हए सारतत्त्व को खोजने का प्रयत्न कर रहे थे। सत्य की गहराई में जाने पर उन्हें बोध हुआ कि इस अशुचिमय शरीर में केवल एक ही सामर्थ्य है परमार्थ की उपलब्धि। इस उपलब्धि का वरण इस शरीर-शक्ति से ही किया जा सकता है। उस शरीर-नौका से ही भवसमुद्र को तरा जा सकता है। उनकी सारी अर्हता परमार्थ को पाने के लिए आतुर थी। उनके चरण सिंहासन से संन्यास की ओर गतिमान होना चाहते थे। आत्मरमण और अध्यात्म-साधना ही अब उनका लक्ष्य बन चुका था। उन्होंने अपने संकल्प को पारिवारिकजनों के समक्ष दोहराया। प्रचुर वैभव, राज्यसत्ता और पत्नियों का अनुराग बार-बार इस संकल्प को चुनौती दे रहा था, किन्तु चक्रवर्ती सनत्कुमार उस चुनौती को स्वीकार करते हुए अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित थे। छह छह महीनों तक पत्नियों का करुण क्रन्दन उनके कानों में गूंजता रहा। प्रचुर सम्पदा और राज्यसत्ता के प्रलोभन ने उन्हें अपने पाश में आवेष्टित करना चाहा, फिर भी वह उन्हें बांध नहीं सका और न ही कोई उनके लक्ष्य को बदल सका। वे अपनी कसौटी में खरे उतरे। वे प्रव्रजित हो गए। साधनापथ पर एकाकी बढ़ते हए वे अपने आपको त्याग और तपस्या से भावित कर रहे थे। उनकी सारी ऊर्जा बाहर से हटकर अन्तर की ओर क्रियाशील थी। शरीर के प्रति होने वाला ममत्व विलुप्त हो चुका था। वे शरीर की सब प्रकार से उपेक्षा करते हुए आत्म-साधना में अनुरक्त थे। न उन्हें शरीर में होने वाला रोग प्रताड़ित कर रहा था और न ही शरीर के
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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