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________________ ८४ शान्तसुधारस किया है। उनका पवित्र यश अभी भी इस जगत् में फलित हुए अफल आम्र की तरह शोभित हो रहा है। या वनिता अपि यशसा साकं, कुलयुगलं विदधति सुपताकम्। तासां सुचरितसंचितराकं, दर्शनमपि कृतसुकृतविपाकम् ॥६॥ जो स्त्रियां यश के साथ दोनों कुलों (पीहर और ससुराल ) की सुन्दर ध्वजा को फहराती हैं, उनका दर्शन भी अच्छे आचरण से संचित सुवर्ण जैसा और किए हुए सुकृत का फल है। तात्त्विक - सात्त्विक सुजन - वतंसाः ', केचन युक्तिविवेचनहंसाः । अलमकृषत किल भुवनाभोगं, स्मरणममीषां कृतशुभयोगम् ॥७॥ कुछ सुजनशिरोमणि तत्त्वज्ञ और सात्त्विक (आत्मा में रमण करने वाले) होते हैं और कुछ युक्ति - विवेचन ( यथार्थ और अयथार्थ का पृथक्करण) करने के लिए हंसतुल्य होते हैं। उन सबने इस विशाल जगत् को शोभित किया है। उनका स्मरण भी शुभयोग का हेतु है । इति परगुणपरिभावनसारं, सफलय सततं निजमवतारम् । सुविहित गुणनिधिगुणगानं, विरचय शान्तसुधारसपानम् ॥८॥ इस प्रकार तू दूसरों के गुण के परिभावन - अनुचिन्तन से सारभूत बने हुए अपने जन्म को सतत सफल बना तथा गुणों के निधान, सुविहितआचारसम्पन्न पुरुषों का गुणगान कर और शान्तसुधारस का पान कर । १. 'अवाप्योस्तंसनद्धादिष्वादेः' (भिक्षु. ३/२/१५१) इति सूत्रेण आदेः अकारस्य वैकल्पिको लोपः- वतंसः, अवतंसः इति । २. प्राचीनकाल में चैत्यवासी और संविग्न- ये दो पक्ष थे। संविग्न (आचार-कुशल) साधुओं के लिए सुविहित का प्रयोग किया जाता रहा है।
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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