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________________ प्रमोद भावना 'दिष्ट्याऽयं वितरति बहुदानं, __ वरमयमिह लभते बहुमानम्। किमिति न विमृशसि परपरभागं, 'यद्विभजसि तत्सुकृतविभागम् ॥२॥ परम हर्ष है कि यह बहुत दान देता है, बहुत अच्छा है कि यह यहां बहुमान को प्राप्त होता है इस प्रकार तू दूसरों के गुणोत्कर्ष का विमर्श क्यों नहीं करता, जिससे तू उनके सुकृत के विभाग को प्राप्त कर सके। येषां मन इह विगतविकारं, ___ ये विदधति भुवि जगदुपकारम्। तेषां वयमुचिताचरितानां, नाम जपामो वारं वारम्॥३॥ जिसका मन विकाररहित है, जो इस धरातल पर जगत् का उपकार करते हैं उन समुचित चारित्र वाले पुरुषों के नाम का हम बार-बार स्मरण करते हैं। अहह! तितिक्षागुणमसमानं, पश्यत भगवति मुक्तिनिदानम्। येन रुषा सह लसदऽभिमानं, झटिति विघटते कर्मवितानम्॥४॥ अहो! तुम भगवान् में असाधारण और मुक्ति के कारणभूत तितिक्षागुण को देखो, जिससे क्रोध के साथ बढ़ते हुए अभिमान वाला कर्मविस्तार शीघ्र ही विघटित हो जाता है। अदधुः केचन शीलमुदारं, गहिणोऽपि परिहृतपरदारम्। यश इह संप्रत्यपि शुचि तेषां, विलसति फलिताऽफलसहकारम्॥५॥ कुछेक गृहस्थों ने भी परस्त्री का परित्याग कर महान् शील को धारण १. दिष्ट्या-यह अव्यय है। इसका अर्थ है अधिक हर्ष-'दिष्ट्या तु सम्मदे' (अभि. ६/१६४)। २. यहां यद् अव्यय है। इसका अर्थ है यस्मात्-जिससे। 'हेतौ यत्तद् यतस्ततः' (अभि. ६/१७३)। ३. तत्सुकृतविपाकमित्यपि पाठः।
SR No.032432
Book TitleShant Sudharas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2012
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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