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________________ न्याय-वैशेषिक आत्मा को अपरिणामी मानते हैं, जैन दर्शन परिणामी नित्य। महावीर ने तत्त्व का प्रतिपादन परिणामी नित्यवाद के आधार पर किया है। __ महावीर से पूछा-आत्मा नित्य है या अनित्य ? प्रश्न का समाधान विभज्यवादी शैली में किया-आत्मा का अस्तित्व त्रिकालवर्ती है। इसलिये नित्य है। परिणमन का क्रम कभी रुकता नहीं इसलिये अनित्य है। समग्रता की भाषा में नित्यानित्य है। सांख्य दर्शन और जैन दर्शन सांख्य दर्शन में आत्मा के लिये 'पुरुष' शब्द का प्रयोग किया है। उसे त्रिगुणादि से भिन्न द्रष्टा और अकर्ता कहा है।५६ वह असंग तथा सुषुप्ति आदि अवस्थाओं का साक्षी है।५७ व्यक्त, अव्यक्त और 'ज्ञ'-सांख्य दर्शन में वर्णित इन तीन तत्त्वों में 'ज्ञ' तत्त्व ही पुरुष नाम से अभिहित है। पुरुष और आत्मा एकार्थक हैं। पुरुष की अवधारणा अनेक युक्तियों के मजबूत आधार पर अवस्थित है। __ अद्वैतवाद में आत्मा को एक माना है किन्तु सांख्य में आत्मा को अनेक स्वीकार किया है। इसका प्रमाण निम्न श्लोक है जन्म-मरण करणानां, प्रतिनियमाद् युगपत्प्रवृतेश्च। पुरुष बहुत्वं सिद्धं त्रैगुण्यं विपर्ययाच्चेव।५८ जन्म-मरण करणानां प्रत्येक पुरुष के जन्म-मरण की भिन्नता है। एक का जन्म होता है, दूसरे का मरण। यदि एक ही आत्मा होती तो एक की उत्पत्ति के साथ सबकी उत्पत्ति और मरण के साथ मरण। एक अंधा है, बहरा है तो सबमें वही अंधत्व और बहरापन मिलता किन्तु ऐसा देखा नहीं जाता। ज्ञान और क्रिया के क्षेत्र में भी तारतम्य है। इससे आत्मा अनेक है-सिद्ध होता है। जन्म-मरण की व्यवस्था की उपपत्ति के लिये आत्मा को बहुसंख्यक मानना ही उचित है। प्रतिनियमात्-प्राणी मात्र में एक जैसी प्रवृत्ति नहीं है। यह भी अनेक आत्मा की सूचना देता है। सत्त्व, रज, तमस् का सम्बन्ध भी भिन्न है। एक आत्मा होने से भिन्नता नहीं रहती। अयुगपत्प्रवृत्तेश्च प्राणियों की भिन्न-भिन्न श्रेणियां हैं। देव, मनुष्य, आत्मा का स्वरूप : जैन दर्शन की समीक्षा - .४७.
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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