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________________ आभार प्रस्तुति आज से ३७ वर्ष पूर्व मैंने 'आत्मा, कर्म, पुनर्जन्म' के संदर्भ में तीन निबंध लिखे। साप्ताहिक पत्र जैन भारती में प्रकाशित हुए । तब से अवचेतन मन पर ऐसे विचार रेखाकित हो गये कि इस विषय को अधिक विस्तार दिया जाये। मस्तिष्क के प्रकोष्ठ में दस्तक होती रही। किन्तु अनजानी राहों पर चलना था, जिनमें न राजमार्ग है न कोई स्थिर दिशा । अपनी अनभिज्ञता से परिचित थी इसलिये साहस समय की मांग कर रहा था । पता नहीं, मन बार-बार मजबूर क्यों कर रहा था ? पहले से भरपूर साहित्य इस संदर्भ में लिखा पड़ा है। भीतर तह तक उतर कर देखा तो महावीरवाणी सामने थी। ‘एगो मे सासओ अप्पा, नाण- दंसण संजुओ' – आत्मा ही केन्द्र है। दर्शन, न्याय, इतिहास, काव्य आदि सभी विधाओं की मूल्यवत्ता इसी पर टिकी है। आत्मा तक की यात्रा में हमें सारे तादात्म्य, सारी प्रतिबद्धताएं तोड़नी होंगी जो आत्मा के अतिरिक्त हैं। आत्मा जीवन की स्वतंत्र हस्ती है। इसकी अनुभूति नितांत व्यक्तिगत है। आत्मा की खोज किसी पदार्थ की खोज नहीं, यह तो स्वयं का स्वयं में होना है। समस्या यह थी कि विषय की विशालता को पार करना, गहन तथ्यों की परतों को चीरकर दीर्घकालीन अतीत में लौटकर स्वयं को उस परिवेश से अनुगत कर, सही एवं यथार्थ तथ्यों का आकलन करना इतना आसान नहीं था। फिर बहिर्विहार में तदनुरूप समकालीन साहित्याभाव में वैचारिक तथ्यों को आधार मिल पाना संभव नहीं था । र्य की पूर्णता में समय, शक्ति और श्रम का सातत्य अपेक्षित है। निराशा और उत्साह के बीच चिंतन झूलता रहा । कई अवरोध आये । अन्ततः संकल्प की दृढ़ता ने कार्य को गति दी । आचार्यवर का निर्देश मिला। लाडनूं सेवा केन्द्र में तेरह महीनों का प्रवास । महाश्रमणी साध्वी प्रमुखाश्रीजी का पावन सान्निध्य। लक्ष्य की पूर्ति रूप सांचे में अपने को ढालती रही। तीन साल सात
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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