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________________ अर्वाचीन, पाश्चात्य हो या पौर्वात्य, सबने अनुभव किया है कि वह अज्ञात या अज्ञेय तत्त्व वे स्वयं ही हैं।१०१ भौतिक विज्ञानी, शरीर विज्ञानी, मनोविज्ञानी आत्मा के अस्तित्व का प्रतिपादन अनुभूतियों के आधार पर कर रहे हैं। जीव के अस्तित्व का जहां सवाल है वहां विज्ञान और दर्शन एक बिन्दु पर खड़े दिखाई देते हैं। यानी विज्ञान का झुकाव भी आत्मवाद की ओर हो रहा है। जैन दर्शन में अस्तित्व सिद्धि के ठोस आधार अग्गय, अगमोहर और दर्शन साहित्य में आत्म- सिद्धि के प्रमाण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। अर्हतों की वाणी आगम है। समस्त जैन आगम अंग, उपांग, मूल, छेद-ऐसे चार भागों में विभक्त है। अंगों में पहला अंग है-आचारांग । आचारांग का प्रारंभ ही आत्म-जिज्ञासा से होता है। जैसेवेदान्त का मूल सूत्र है-'अथातो ब्रह्म जिज्ञासा।' यह आत्म सत्ता का मूल सूत्र है। इसी प्रकार उपांग, मूल, छेद, टीका, चूर्णि, प्रकीर्णक, भाष्य, नियुक्ति आदि में जीव से सम्बन्धित प्रचुर सामग्री है। सुख-दुःख की संवेदना से अस्तित्व की सिद्धि होती है। संवेदना का सम्बन्ध केवल शरीर से नहीं, अन्तर अनुभूति से है। अतः शरीर और आत्मा की भिन्नता का बोध होता है। ___ मनुष्य के शरीर में प्राण-अपान का संचार, श्वास-प्रश्वास का स्पंदन, आंखों की पलकों का गिरना-उठना, देहजन्य घावों का भरना, इच्छानुसार मन को क्रिया में प्रवृत्त करना, प्रिय वस्तु में उत्सुकता, प्रयत्न आदि आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व के सूचक हैं। सोते-जागते प्रत्येक अवस्था में 'अहम्' प्रत्यय का बोध भी पृथक् अस्तित्व को सूचित करता है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करना होता है। अन्यथा उत्तम पुरुष (First Person) के स्थान पर अन्य पुरुष या मध्य पुरुषवाचक शब्दों का प्रयोग भी संभव है। संदर्भ सूची १. यथा चिकित्सा शास्त्रं चतुर्म्यहम् रोगा, रोगहेतुः, आरोग्य, भैषज्यमिति। एवमिदमपि शास्त्रं चतुर्म्यहम्। तद्यथा-संसारः, संसार हेतुः, मोक्षो, मोक्षोपायः । इति व्यास भाष्य २।१५। .३० जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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