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________________ लिये कोई समस्या नहीं, न उत्पत्ति के बारे में सोचने की अपेक्षा है। अनादि नहीं माना उनके विचार भिन्न-भिन्न हैं। वैज्ञानिक जगत में जीव का बीजाणु कहां से आया? यह प्रश्न चर्चनीय है। वैज्ञानिकों ने खोजा तो पाया कि डी.एन.ए. आदि स्रोत है। इसके उद्भव के साथ ही जीवन का उद्भव हुआ। जीव द्रव्य (Protoplasm), जिसके मध्य भाग में केन्द्रक (Nuclous) होता है, केन्द्रक में स्थित गुण-सूत्रों को निर्मित करने वाले महा रसायन डी.एन.ए. (Deoxyribo Nucleuic Acid) में निहित हैं। सभी क्रियाओं का यह नियामक है। यह अमीबा से लेकर आदमी तक सबकी कोशिकाओं में विद्यमान है। यही पैतृक संस्कारों का संवाहक है। वैज्ञानिक अवधारणा से पृथ्वी के वायुमंडल में जैसे-जैसे परिवर्तन आता गया वैसे-वैसे अधिक विकसित जीवों का विकास होता गया। एककोषीय जीवों में से बहुकोषीय जीव अस्तित्व में आये। अमीबा एककोषीय प्राणी है। पहले अमीबा की उत्पत्ति हुई फिर उत्तरोत्तर अधिक विकसित जीवों का विकास। इस क्रम से जीव-सृष्टि का निर्माण हुआ। अन्ततः अरबों कोषों द्वारा मानव देह बनी। कोष चेतना की प्रथम इकाई है। प्रोटीन, पोटेशियम, कार्बोहाइड्रेट, मेग्नेशिया, लोह के क्षार कोष के रासायनिक घटक द्रव्य हैं। फलतः चैतन्य विविध रासायनिक प्रक्रियाओं का ही सर्जन है। डी.एन.ए. के निर्माण में ‘पोली एन्जाइम' की अपेक्षा है। यहां प्रश्न होता है कि पहले डी.एन.ए. हुआ या एन्जाइम ? वैज्ञानिकों का उत्तर है कि दोनों एक साथ हुए। कैसे हुए ? संयोगवश। इसका कोई प्रमाण नहीं। __जड़ से चेतन की निष्पत्ति की मान्यता रखने वाले के अनुसार भी आत्मा रासायनिक एवं भौतिक शक्तियों का संश्लिष्ट समूह है।८० रसायनशास्त्री सर हेनरी, रस्की, हक्सले, जड़-विज्ञान के प्रवक्ता टिण्डल, वर्गसां, डार्विन आदि विज्ञानविद् जीवागम की समस्या का समाधान देने में असफल ही रहे हैं। जैन दर्शन का अपना अभिमत है, विज्ञान भले एमिनो एसिड, प्रोटीन आदि बना देगा किन्तु वह एक प्राथमिक कोशिका भी बनाने में समर्थ नहीं है। अतः चेतना अनादि है। जैसे कोई कारखाना टेलीविजन सेट उत्पन्न करता है। वह टी.वी. सेट कार्य तभी करेगा जब टेलीविजन केन्द्र से प्रसारित टेलीविजन तरंग उसमें प्रवेश करेगी। टी.वी. सेट, चित्र एवं ध्वनि के द्वारा उस सेट को सजीव बनाने वाली विद्युत् चुम्बकीय तरंगों का जैसे स्वतंत्र अस्तित्व है उसी प्रकार विविध जीव-सृष्टि के शरीर में अभिव्यक्त चेतना का स्वतंत्र अस्तित्व है। आत्मा की दार्शनिक पृष्ठभूमि : अस्तित्व का मूल्यांकन - .२५.
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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