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________________ शुरू। एक नया आनंद बरसने लगता है। नया किनारा नजर जाता है। पुराना अदृश्य हो जाता है। नवमें में अभेद की स्थापना। स्त्री-पुरुष के भेद समाप्त। केवल आत्मा रह जाती है। गार्गी ने कहा था-'ज्ञान वर्जितो वालो' देह की भिन्नता के पार पहुंचने पर क्या स्त्री, क्या पुरुष ? सभी विशेषणों से ऊपर होती है-आत्मा । ग्यारहवें में सब कुछ शांत। कूड़ा-कर्कट तल पर बैठ गया, किन्तु निश्चिंतता नहीं। कभी कचरा पुनः ऊपर उठ सकता है। १२वें में पानी पूर्ण शुद्ध है। मल का निष्कासन हो गया। महावीर का गणित साफ है। १३वें में केवलज्ञान हो गया पर देह से अभी तक सम्बन्ध है। वह छूटा नहीं। १४वें में वह सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है। कारागृह से मुक्त हो जाता है। मन-वचन-काया की सारी चेष्टाएं समाप्त हो जाती हैं। शैलेषी अवस्था में पहुंचकर स्वयं को उपलब्ध हो जाता है। सब बाधाएं हट गईं। अब कुछ बनने की संभावना नहीं। बारहवें से संसार समाप्त, मोक्ष प्रारंभ। मानो यह बोर्ड है। जिसके एक तरफ लिखा है- संसार समाप्त। दूसरी ओर मोक्ष प्रारंभ। फासला दिखाई नहीं पड़ता। दोनों की सीमा रेखा एक ही है। प्रथम सात श्रेणियों तक अनात्मा का आत्मा पर आधिपत्य और अंतिम सात में आत्मा का अनात्मा पर अनुशासन। गुणस्थान, आत्मा-अनात्मा के अव्यावहारिक संयोग की अवस्था है। निर्वाण की प्राप्ति सबका आदर्श है। साधक जितना आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में अग्रगामी होता है उतना ही निर्वाण के निकट होता है। जैन परम्परा में अध्यात्म-विकास की ये चौदह भूमिकाएं हैं। अन्य परम्पराओं में आध्यात्मिक विकास बौद्ध धर्म में आत्म-विकास के सम्बन्ध में चिंतन किया है। उनके अनुसार संसार के समस्त प्राणियों को दो भागों में विभक्त किया गया है-पृथक् जन भूमि (मिथ्यादृष्टि) आर्य पृथक् जन भूमि (सम्यग्दृष्टि)। हीनयान-महायान दोनों में आत्म-विकास की दृष्टि से कुछ मतभेद हैं। हीनयान में निर्वाण मार्ग के अभिमुख साधक को चार भूमिकाएं पार करनी होती हैं।३४ विकासवाद : एक आरोहण २०५.
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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