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________________ अन्तराय नामक तीनों कर्मों के आवरणों को नष्ट कर अनन्त ज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त शक्ति से संपन्न हो विकास की अग्रिम श्रेणी में चला जाता है। सयोगी केवली गुणस्थान-(Omniscient soul with yogic vibration)—इस श्रेणी का साधक सर्वज्ञ होता है। इसमें सिर्फ चार भवोपग्राही कर्म और मानसिक, वाचिक तथा कायिक क्रियाएं होती हैं। योगों के कारण बंधन होता है किन्तु द्विसामयिक मात्र ही। बन्धन और विपाक की प्रक्रिया कर्म सिद्धांत की सिर्फ औपचारिकता है। योगों का अस्तित्व है इसीलिये सयोगी केवली गुणस्थान कहा है। अयोगी केवली गुणस्थान-(Vibration less omniscient soul.) इस गुणस्थान में प्रवेश पाते ही शुक्ल ध्यान का चतुर्थ भेद समुच्छिन्न क्रिया प्रतिपाति शुक्लध्यान के द्वारा मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापारों का निरोध हो जाता है। निष्प्रकंप स्थिति प्रकट होती है। चरम आदर्श की उपलब्धि है। आत्म-विकास की परमावस्था है। सर्वांगीण पूर्णता एवं अपुनरावृत्ति का स्थान है। आध्यात्मिक विकास का अंतिम द्वार है। इस गुणस्थान का स्थितिकाल अत्यल्प है। बाद की जो अवस्था है वह निर्वाण है। प्रत्येक प्राणी अपने ही पुरुषार्थ द्वारा परमात्म अवस्था तक पहुंच सकता है। व्यापार का सम्बन्ध अर्थशास्त्र से, औषध का आयुर्वेद से, ध्यान का योगशास्त्र से वैसे आत्मा का गुणस्थान से है। प्रथम तीन गुणस्थान में बहिरात्मा,चौथे से बारहवें तक अन्तरात्मा, तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान में परमात्मा। तीसरे में डांवाडोल अवस्था। चतुर्थ भूमिका में सम्यक् बोध किन्तु विरक्ति नहीं। पांचवें से संयम का क्षेत्र शुरू हुआ। जीवन में एक सीमा रेखा बनने लग जाती है। जीवन की सारी ऊर्जा एक दिशा में प्रवाहित होती है। तालाब सभी तरफ से खुला है। सीमा करना ही संयम है। संयम से ऊर्जा सुरक्षित रहती है। यदि नदी बनना है तो किनारा चाहिये तभी सागर तक पहुंचा जाता है। पांचवां गुणस्थान अर्थात् किनारों में बंधा व्यक्तित्व। सातवें गुणस्थान में मूर्छा, अहंकार, प्रमाद की सूक्ष्मतम अभिव्यक्ति भी शून्य पर आ जाती है। साधुता के भाव आविर्भूत होने लगते हैं। आठवें में प्रवेश के साथ परिणाम अपूर्व हो जाते हैं। सातवें तक साधना। आठवें से अनुभव .२०४ - जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन
SR No.032431
Book TitleJain Darshan ka Samikshatmak Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaginashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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